अजीत कौर की आत्मकथा ‘ख़ानाबदोश’ पर यतीश कुमार की काव्यात्मक समीक्षा
1.अजीत कौर की आत्मकथा ‘ख़ानाबदोश’ पर यतीश कुमार की काव्यात्मक समीक्षा
नाभि
से कान सटाये
हामला
औरत-एक ज़ख्मी बाज़
नंगे
दरख़्त की सबसे उपरी टहनी पर
शोक
गीत गा रही है
ज़ख़्मों
में इतना रोष है
कि
लफ़्ज़ों की नागफ़नी उग आई
समय
है कि बीतता जा रहा है
दर्द
नहीं बीत रहा
रूह
तड़पती है
झुलसती
है देह
मन ही
मन 101 का नम्बर घुमाती हूँ
भीतर
आग नहीं पूरा दरिया है
2.
बदहवास
बेबसी में कहा
‛उसे
कह दो’ मैं आ रही हूँ
टांगें
जवाब दे रही हैं
मन
बदहवास दौड़े जा रहा है
जले
जंगल में राह ढूँढती हूँ
और
खँडहर की सीढियाँ चढ़ आयी
वहाँ
दूर काँच की दीवार के पार
मेरी
परी लेटी है
वही
चाँद के टुकड़ों वाली आँखें
वही
शहद के कटोरे वाले गाल
मानो शफ़्फ़ाफ़
माहताब
दीवार
के पार ढल रहा है
किसी
ने कहा “उसका ही आसरा है”
और
उसके आगे मेरा सारा वजूद झुक गया
3.
‛आख़री
दिन‘ क्या सच में आख़री होता है
बुदबुदाई
आग की लपटों को भुलाने वाले हम्द
और
मेरी गुड़िया है कि लपटों में भी
मेरी
भूख की चिंता किए बैठी है
दुआओं
में सनी चीख़ निकली
“ओ
खुदाया” मैंने किसी चिड़िया का दिल नहीं दुखाया
मेरी
चिड़िया के पंखों को क्यों फूँक दे रहा है
यातनाओं
की उम्र और गहराई
दोनों
की सीमा नहीं होती
भीतर
इतनी तेज चीखी
कि
आवाज़ बादलों से टकरा कर लौट आई
पहाड़ों
को सुना आयी
बस
उसतक नहीं पहुँच पाई
चिल्ला
उठी “ओह मेरे मौला”
मेरी
काया को उतार
मेरे
लहू मांस से बनी
मेरी
छाया को दे दे…
4.
वक़्त
की चक्की
हड्डियों
को पीसे जा रही है
रोड
रोलर की तरह कुचलता हुआ
हर
लम्हा, साँस कम और हिचकियाँ ज्यादा
लेते देख रही हूँ
उसके
दाहिने खड़ी मैं
और बायीं
ओर के कोर से
उसके
आँसू की धार कह रही है
‛माँ
मुझे पानी नहीं देते ये लोग‘
मेरे
कलेजे को खुरचकर
वो
लकीर अपनी गहराई बढ़ाती जा रही है
और
कराह वादियों-सी गूँजे जा रही है
‛माँ
मुझे पानी नहीं देते ये लोग‘
सात
शीशे की दीवारों के पार
हिचकियों
का तांता
अपनी
ज़िद पर अड़ा था
मुठ्ठियाँ
भींचे मैं उसे ताके जा रही थी
और वो
मेरे हाथों में पसीने सी
फिसलती
जा रही थी
5.
टूटने
की हद तक खींचा हुआ तनाव
हाँफते
हुए चहलकदमी कर रहा है
छिटकता
जा रहा पल
रेत
दर रेत रात ससरती रही
करवटें
भी कराहने लगीं
और
रेत घड़ी है कि करवट लेना भूल रही है
ढिठाई
से हम जमे रहते हैं
और
कोई अपना
चलता
चला जाता है
डेग
दर डेग, दूर बहुत दूर
बुदबुदाहट
के हम्द सुनते-सुनते
बस एक
अंतिम आवाज़ आयी
अब
नहीं सुना जा रहा अम्मी
और
सोए हुए कँवल-फूल सी आँखों ने पलकें मूंद लीं
6.
सारे
जवाब गर्दन लटकाए खड़े हैं
और
मैंने उन्हें पहचानने से इनकार कर दिया
एक
पूरा का पूरा जहाज
थरथराया
और डूब गया
वो
हमेशा कहती अम्मी
अंधेरे
को थोड़ा एन्जॉय करने दो
अँधेरे
में सारा आकाश आगोश में आ जाता है
आज
आकाश की आगोश में है मेरी नन्ही परी
अरदास
की आँच धीमी मद्धम
और
तेज होती रहती है
यह
प्रश्न लिए मैं
अब भी
सुलगती रहती हूँ
7.
वो
मुझे देख कर ऐसे मुस्कराता
जैसे
किसी नादान को देख रहा हो
पतझड़
के पत्तों का पगालपन देखा
उस
पत्थर को रंग बदलते देखा
ठूँठ
में ताज़गी हरियाती देखी
वो सब
तब दिखा जब तुम साथ थे
एक पुराने
सहम के साथ हम मिलते
और उस
फिसलते वक़्त में भी
घड़ी
साजिशें करती रहती
ख़्याल
की कूची जब चित्र उकेरती
तो
आशिक़ साजिद बन जाता है
और
सजदा प्रेम में
घुलमिल
एकरंगा हो जाता है
8.
उसके
चेहरे पर हवन का ताप
और
आँखों में हवन की परछाई
देखते
ही देखते देह में सरसरी
और
रोम-रोम में उभर जाती सेंक
कोई
मुलम्मा नहीं
अनढँका
अहसास हूँ
उनके
खतों को पढ़ती तो
कागज़
के परवाज़ उड़ने लगते
जिसे
दुनिया पानी दिखे
और
प्रेमी एक टापू
और वो
तैरना सीखना चाहती
पानी
को पार करने के लिए
हमने
पुल बनाये, रास्ते बनाये
और जब
उसने आवाज़ दिया “अगर तू चाहे “
रास्ते गुम, पुल गायब और टापू भी
9.
स्पर्श
की झनझनाहट
स्वप्न
में भी लहू से गुज़र जाता
कहते
हैं लहू ह्रदय में जाकर साफ होता है
रास्ते
भी ज़िबह होते हैं
करता
कौन है?
पर वह
आगे के रास्ते बताता है
उन
अनजान रास्तों पर
गूँज
रह-रह कर आपस में मिलती
कहती,
साथ
रहो न रहो
इबादत
को फर्क कहाँ पड़ता है
अलौकिक
क्षण में उसे दोबारा देखा
सख़्त
ज़मीन
मुलायम
लकड़ी का टुकड़ा बन गई
शायद
डूबने के वक़्त याद आये
10.
एक
शाम में सालों का असर बीता
और
पंछी की चीख़ की तरह
वक़्त
का अहसास वापस आया
विश्वास
पत्तों की तरह दरख़्त से झर रहा है
अब एक
दरख़्त है बेपत्ति
और
उसके नंगे तने पर
आ
बैठी है एक नन्ही चिड़िया
मेरे
मन के कोटर में
उसकी
यादें पंख कतरे कबूतरों की तरह
फड़फड़ा
रही हैं
गुटर
गूँ के शोर में मेरा बहरा होना तय है
11.
मुझे
हमेशा से
भीड़
से अलग सड़क देखनी थी
जो
दरिया की ओर जाती है
उन्हें
देखने जब भी मैं चिकें हटाना चाहती
कई
झिड़कन एक साथ मुझसे
गुत्थम
गुत्थी करने लगतीं
अब
मैं चिह्नों में प्रतीक गढ़ने लगी हूँ
एक
फितूर पर सवारी करना था
मुझे
पता नहीं था
कि
फितूर का आह्वाहन नहीं किया जाता
वो
बिना बताए प्रवेश करता है
कराहते
चरमराते दरवाज़े
बरसते
बादल की तरह
मुझे
हमेशा अपनी ओर खींचते
कच्ची
छीली हुई लकड़ी की गंध
बुरादों
और लच्छों की माला
सोचती
हूँ इतना सोहाती क्यों रही
दरअसल
इन प्रतीकों को यथार्थ में मिलना था मुझसे
12.
निगार
आँखों के बीच बगावत
अपना
विस्तार लेती है
वेल्डिंग
टॉर्च से निकलती चिंगारियों की तरह
पहले
पिघलाती है फिर सख़्त हो जाती है
मेरे
सारे रफू उघड़ गए
हवा
निकली फुटबॉल बनी
जिससे
मरी सी फिस्स की आवाज़ आती है
मुझे
दीवाल तक धकेला गया
आबोदाना
छीन कर
परिस्थितियाँ
आपको सिकोड़कर
दाना-दाना
घसीटती चींटी बना देती है
अपने
जिस्म के घोंघे से
अपने
कान सटाकर
समंदर
का शोर सुन रही हूँ
सुन
रही हूँ,हाँ कि मेरी देह पिघल रही है
13.
पल्लू
में सिमटा समेटा कण
समंदर
में बिखर गया
और
समंदर मेरी अंजुरी में समा गया
खंडहर
सा सदियों पुराना दर्द
विलाप
करता हुआ मेरे गले लिपट गया
और
मेरे कानों में एक फुसफुसाहट सी दौड़ी
“इंतज़ार
बंद दरवाज़े की चाबी है”
उसे
सर्दियाँ पसंद नहीं
और
मुझे उन दोनों से प्यार
वह
ठोस गर्म साँस लेता सुख
सर्दियों
की उधार है
और इन
सब के बीच
गीली
राख़ की तरह
प्रेम
सूखने के बदले बन
काली
रोशनाई में बदलता रहा
14.
मैंने
प्रेम कहानियाँ रची
मधुर
गीत गाये
मुझे
करुणा का गीत बनाकर
प्रेम
से मधुरता गायब हो गया
मैंने
उसे उस चश्मे की तरह ढूँढा
जो
मेरे सीने से लटके हुए हो
और
मैं उसे शेल्फ और ड्रावर में
ढूँढ
रही हूँ
दिए
की उठती लौ की तरह
उठ कर
चल पड़ी
बेनियाज़,
बे-ख़ौफ़
अंधेरी सुरंग में
कि
अचानक पूरी की पूरी सुरंग धँस गयी
नंगी
सड़क पर नंगी भटकन
बस एक
दीवार की तलाश में
सुन्न
मसान पर खड़ी
दुःख-
सुख दोनों ग़ैरहाज़िर
मशाल
बनी
जिसने
खुद को पहले जलाया
और अब
जब आग की लपटें बुझ चुकी हैं
तो
मैं एक बेनियाज़ दरख़्त हूँ
जिसकी
डाल पर
एक
चिड़िया ताउम्र चहचहाती रहेगी...
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