निधि अग्रवाल के कहानी-संग्रह 'अपेक्षाओं के बियाबान' पर यतीश कुमार की काव्यात्मक समीक्षा
निधि अग्रवाल के कहानी-संग्रह 'अपेक्षाओं के बियाबान' पर यतीश कुमार की काव्यात्मक समीक्षा
स्मृतियों के प्रेत से मुक्ति पाने के लिए लिखना एक अलग आयाम के साथ नयी अभिव्यक्ति की आधारशिला बुनता है। लेखिका की पाती पढ़ते हुए एक ईमानदार लेखनी की ख़ुशबू आ रही है जो किरदार को ज़ेहन में सहेजे रखती है तब तक जब तक साँचापूरी तरह तैयार न हो जाए। पहली कहानी से ही लेखिका मौलिकता का परिचय देती हैं जो की किताबत शैली में है और बहुत सुंदर शब्द संयोजन के साथ लिखी गयी है। कहानियों में लेखिका की चिकित्सीय पेशे की पैठ दिखती है, जिसका इस्तेमाल कहानी को और रोचक बनाने में सही तरीक़े से किया गया है।
‘अति…..रिक्त ‘ में एक अच्छा ट्विस्ट है जो
सकारात्मक अंत से इसे और भी सुखद बनाता है । ‘परजीवी’ जैसी कहानी में भावनाओं को
उकेरने का जो शब्द संयोजन है वो इस कहानी को थोड़ा अलग और रोचक बनाये रखता
है।रिश्तों की डोर निधि की मज़बूत कड़ी है। ऐसा लिखना कि “पता नहीं क्यों हर प्रेम
करने वाले युगल में मुझे माँ -बाबा का अक्स दिखताहै” या “उन लोगों की आँखों में एक
दूसरे के लिए तैरते स्नेह को देखा तो लगा माँ-बाबा साथ बैठे हैं।“ साधारण शब्द में
भी भावनाओं कासमंदर समा सकता है! ‘मोहर’ में प्रेम अपने नैसर्गिक बोध के साथ है,
देवदास
की नोकझोंक के साथ।
सभी कहानियों का स्तर एक जैसा नहीं हो सकता।
छोटी और बड़ी दोनों तरह की कहानियों को एक साथ निभाना आसान नहीं पर निधिकी कोशिश
सराहनीय है ।
शुभकामनाओं सहित जो भावनाएँ पढ़ते वक्त उद्वेलित
हुईं उन्हें कविता का रूप दिया गया है !
1.
भारी परदे डालकर
सूर्योदय रोकने का प्रयास लिए,
खारा पानी सहेजे
बियाबान में वो अकेली खड़ी मिली
चेहरे को देखती उसके
तो प्रेम अधीर हो उठता
और फिर थोड़ी देर में दिखता वही चेहरा अज़नबी
स्वप्न की अनसुलझी लड़ाई है यह
प्रेम अलौकिक हो तो लौ
भी सूरज समेट लेता है
और लौकिक हो जाए तो
चाँद का मुँह भी टेढ़ा
दिखता है
वो सूरज के पीछे दौड़ता
है और मैं, उसके
अपेक्षाएँ मीठे सपनों
तक ले जाती हैं
और जागने पर खारे पानी
और फिसलती रेत में बदल
जाती हैं
फिसलना फ़ितरत नहीं,
क़िस्मत
है
पर दो अपेक्षाओं के एक
होने से
वे अलौकिक हो जाती हैं
अवसाद का समंदर
जब स्मृति की हिलोरों
से जा मिलता है
तब समंदर को सुखाने का
सामर्थ्य
सिर्फ़ और सिर्फ़ अटूट
प्रेम में होता है
अंधेरी गुफ़ाएँ बाहर से
ज़्यादा भीतर हैं
स्मृतियों की थाती अपनी
स्थूलता बढ़ा रही है
खुद पर संवरण नहीं रहा
दूर,
बहुत
दूर जलती लौ अब पास आ रही है
दरअसल हमें यह नहीं पता
होता
लौ की रोशनी में
सीधे दर्पण में स्वयं
पर तिरछे आईने में
प्रेम भी संग दिखता है
2.
राह में बड़ी फिसलन है
आँखों को चौकन्ना होना
है
आँखों के रंगों में भी
उतनी ही फिसलन है
इस फिसलन का क्या उपाय ?
जब लोग बोलते कम
और हँसते ज़्यादा हैं
तब आँखों की तीसरी तहों
में
खुरचन की परतें उखड़
रही होती हैं
सारा खेल वक्र मुस्कान
और बेरंग आँखों के
तालमेल का है
कभी-कभी आँखें भरी होती
हैं
तब उसकी शक्ल ऐसी दिखती
है
जैसे काले बादलों ने
चाँद ढक लिया हो
ऐसा क्यों होता है
कि अक्सर जाने में वक्त
ज़्यादा
और आने में कम लगता है
चाहे रिश्ते हों या
रास्ते
मौन की दूरी बड़ी लम्बी
होती है
पर मुस्कान की एक उजास
अमावस को पूर्णिमा बना
देती है
बस उस पूर्णिमा का
इंतज़ार भी
मौन जितना लम्बा होता
है
3.
तुम्हारी अनुपस्थिति
प्रत्यक्ष सच है
या आभासी झूठ
मेरी धमनियाँ चल रही
हैं
सबूत की और क्या ज़रूरत
तुम गुमसुम हो
पर तुम्हारी आवाज़ विंड
चाइम बनकर गूँजती है
हँसी की निर्मल किरणें
तमस को उजास कर देती है
उसने कहा कैसी हो ?
मन ने कहा जल बिन मछली
फैलना आसान है सिमटना
मुश्किल
चाहे तन हो या मन
ज़िंदगी वो सेज है
जिसमें फूल बिछे दिखते
हैं
पर लेटो तो काँटे चुभते
हैं
यथार्थ मतिभ्रम नहीं
होता
उसके जाने से थोड़ा सा
मेरा हिस्सा भी
उसके साथ चला जाता है
ये हिस्से लौटने पर रोज़
कभी जुड़ते हैं तो कभी
नहीं
शायद यूँ मैं
थोड़ी-थोड़ी ख़ाली हो रही हूँ
अब एक सुरंग है जहाँ
कोई रोशनी नहीं पहुँच सकती
और एक बुरांश है जो
पहाड़ों पर खिला है
वहाँ आसमान शिखर को
प्रेम चुम्बन देता है
शिखा कभी आसमानी तो कभी
काली दिखती है
बादल
साफ़ हों न हों,बुरांश मुस्कुराता ही मिलता है
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