राजेन्द्र अवस्थी के उपन्यास 'जंगल के फूल' पर यतीश कुमार की काव्यात्मक समीक्षा


1.

दिन रोटी उगाता है
और भूख सोखती है रात
एक प्रेम है 
जो बांधे रखता है सबको साथ -साथ

जंगल में आदम और सुख 
ठीक वैसे ही मिलते हैं
जैसे चैन और चढ़ाई 

वहाँ हवा चोट खाए सांप सी बिलखती है 
भाग्य छाया बन तड़पती है
होती है, पर साथ होकर भी
साथ नहीं होती 

जंगल में मृत्यु को भी 
अंत में पत्थर बन जाना होता है
और पत्थर की पूजा जारी रहती है

 

2.

जब वह चलती 
तब आंचल का छोर लपेटे
हरे बांस की टहनी-सी 
वह लहराते चलती

प्रेम में कहानी सुनाता 
तो वह स्वप्न देखती 
और वह उसे यूँ देखते हुए देखता 
जैसे टोंगी में लेटकर आसमान देख रहा हो 
और तब वह उसे यूँ चाहती 
जैसे चंचल नदी 
पत्थरों से लिपटकर प्यार करती है 
जैसे चाँद को झुलाकर 
लहरों को संतोष मिलता है  

चाँद की बात करने 
और चाँद को जानने के बीच टहलती वो 
ताउम्र शीशम की अमरबेल बनी रही 

सूखी अमरबेल भी पेड़ का साथ नहीं छोड़ती
यह जानती थी वह 
पर उसे यह नहीं पता था 
कि प्रेम सोखता है या सींचता है ?

 

3.

पड़िया* प्रेम जतलाती है
प्रेम पाप से कोसों दूर की भाषा रचता है 

पर यहाँ महुआ कब चम्पा बन जाए 
ख़ुद उसे भी नहीं पता 

वह सपने बहुत देखती है
पर स्वप्न में एक पहेली भी है 
कि प्रेम बाँधता है 
या मुक्त करता है 

किसी और का अक्स 
किसी और की जलन 
किसी और का प्रेम
सब ख़ंजरों के रूप हैं 

यह प्रेम को भी नहीं पता 
कि वह  ख़ंजरों के बीच से गुज़र रहा है
या फूलों के क्यारियों से
जबकि लोग समझते हैं 
प्रेम ने ख़ंजर छुपा रखा है 

*पड़िया- प्रेम दर्शाने के फूल 

 

4.

नभ में तारे
और छाती में अंगारे लिए
खिले फूल की शक्ल लिए 
सपने नाचते हैं 

चेहरा शीतल हवा-सी है
पर शीतल हवा आग को
ठंडा नहीं करती
और भड़काती है !

बीज को फ़ुहार का इंतज़ार है 
और प्रेम को एक झलक की 

खिलना दोनों की नियति है 
बस वे भूल जाते हैं 
कि नियति में मुरझाना भी लिखा होता है 

एक दर्द, दूसरे दर्द का दर्द हर लेता है 
वही हाल प्रेम का भी है 
प्रेम की कमानी विश्वास खींचे रखता है 
और डगमगाते ही निशाना दगता है 


5.

जंगल में ताला नहीं होता
जहाँ ताले होते हैं 
चोरी वहीं होती है
मन का हाल भी कुछ ऐसा ही है 

किसी की नज़र 
पाँव की ताक़त खींच लेती है 
तो किसी की सोख लेती है मुस्कान 

नहीं पता कि उसकी नज़र ज़्यादा बुझी हुई है या तीर 
जबकि सच यह है कि 
तीर से ज़्यादा बींधती है वे आँखें 

चेतना पर बुद्धि का जाला  नहीं दिखता
उसका असर दिखता है 

दरअसल सच यह है 
कि अभी वह बस समझना चाहती है 
कि यह दुःख है या कोई परीक्षा 


6.

रात आसमान से तारे यूँ खिसक गए
जैसे उसकी पायल से एक-एक कर घुँघरू  

नाचते हुए जंगल का मुँह 
आसमान की ओर खुल गया 
काली बदरी को इसी मौक़े की तलाश थी
सो रात और काली हो गई 

वह चोट खाया मेढ़क है
सुकून न जल में है, न थल पर
यहाँ बेचैनी सबब है 
और बेसबब है उसकी राह 

आँख के बाँध का टूटना ज़रूरी है
इश्क़ में प्रेम का मिलना ज़रूरी है 
पर मिलने के लिए चलना ज़रूरी है
संग-संग बहना ज़रूरी है 

ठहरा पानी मन के भीतर 
विष बन जाता है 
उसका भी बहते रहना उतना ही ज़रूरी है 
जितना नदी और हवा का।। 

7.

निश्चय दृढ़ हो 
तो ठोकर का पत्थर 
मील का पत्थर बन जाता है 
जो सीधा सपनों के महल की नींव में गिरता है 

धैर्य का अकाल 
काल से चले आ रहे क़ानून को 
क्षण में राख़ कर देता है 
पर जंगल और प्रेम दोनों काल से बड़े हैं 

जंगल की आग भूख की होती है 
शहर जब जंगल में प्रवेश करता है 
तो आग का नाम हवस हो जाता है

मन का चोट दोनों के लिए घी है
परन्तु किसी को नहीं पता 
इस आग की सुबह कब होगी 

चित्त का चित 
और मन का पट 
पलकों की डोर से बंधा है 
पलक अगर अपलक रह जाए
तो चित और पट एक हो जाते हैं।। 


8.

आँधी चली और मृगनयनी की 
दो दीये वाली आँखें 
जल कर बुझ गईं 

उन आँखों में शोले नहीं 
आग के बाद का धुआँ है 

आँख में धूल झोंकने के लिए 
आग नहीं 
धुएँ के बादल को बचाए रखना ज़रूरी है 

विरह में वह 
मन को यूँ दबाती 
जैसे बाज पंजे में साँप को 

प्रेम की मारी पत्थर बन जाती है 
पत्थर से प्रेम करना 
मानो अपना सिर फोड़ना

 

9.

वह बीड़ी ऐसे जला रहा है 
जैसे दर्द फूंक रहा हो लगातार 
उसके आँसू गिरकर
धूल में फुग्गे बना रहे हैं 

कराह मीठी हो सकती है 
'गोदना’ दुःख में डूबकर
सुख के फूल का प्रतीक बन जाता है  

टीस की कनगी हर कस में चिहुँकती 
जैसे हर सुलगन सुकून का खौलता रस
बूँद-बूँद भीतर टपका रहा हो 
परेशान हो जाता आकाश को क्षितिज से मिलते देख 

उसे लगा हरी फसल पर 
असमय हँसिया चलाया गया है मुस्कुराते हुए
अभी-अभी समझ पाया
कि आग बुझने के बाद भी
छोड़ जाती है सुलगन 
ताउम्र जलने के लिए 

 

10.

मन की डोर झूले झुलाते हैं
तब पतंग की तरह विचार
इधर-उधर उड़ते हैं स्थिति ऐसी है 
कि ख़ुशी में न हँसा जाये
न दुःख में रोया जाए 

उसे कहाँ पता
कि काँटों में मुस्काने के लिए 
नागफनी का फूल बनना पड़ता है 
सुनहरे रेत से पहले पत्थर को टूटना पड़ता है 

घर को ऐसे जोड़ कर रखती है 
जैसे धरती आसमान को 
जरा सी थरथराई 
कि भरभरा कर होती है बारिश 


11.

कोई ढोल की दरांत ढीली कर कहता है
तुम ढोल नहीं बजा सकती 
स्त्रियों तुम्हें एक होना है 
ताकि कोई तुम्हारे राग में 
भ्रम की डोर न डाल सके 

प्रेम और देस में चुनाव विडम्बना है 
पर हर बार देस की ओर झुका है प्रेम  

इतना जानना था 
कि दुनिया बदल गई 
जो प्रेम को पागल थी
अब वो देशप्रेम में पागल है 

मंदिर में लाल झंडा है 
और जंगल में पलाश के फूल
भीतर का धड़कता लावा भी लाल है 
आज़ादी के लिए लड़ने वाला भी किसी का लाल है  

आज रंगरेज ने रंगा है 
शाम लालिमा भरी 
वह कहता है करतब नहीं आते
मुझे तो आग से खेलना है, आग पर चलना है

उसने एक मंत्र याद कर लिया
सपना देखना तो सोना नहीं 
और जब तक हममें से 
एक भी ज़िंदा है
अंतिम साँस तक लड़ेंगे साथी 

'भूमकाल'* के उमड़े बादल 
अपनी पनाह में प्रेम को छिपा लेता है 
प्रेम शक्ति का कवच पहने आता है 
और जब 
प्रेम और देशप्रेम एकमय हो जाते हैं
तो रूह अजर हो जाती है 

और तब क्रांति की लौ 
अमर प्रेम गाती है 
अमर प्रेम गाती है...

* भूमकाल- विद्रोह 

Comments

Popular posts from this blog

चर्चित लेखिका शैलजा पाठक की किताब ‘कमाल की औरतें’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

विनय सौरभ के काव्य-संग्रह ‘बख़्तियारपुर’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

प्रतिष्ठित कहानीकार मनोज कुमार पांडेय के कहानी संग्रह ‘पानी’ पर यतीश कुमार की समीक्षा