वरिष्ठ लेखिका गरिमा श्रीवास्तव के उपन्यास 'आउशवित्ज़- एक प्रेम कथा' पर यतीश कुमार की समीक्षा
दूसरों को सँभालने से मुश्किल होता है ख़ुद को सँभालना और इसी के साथ दूसरों को बचाने में हम ख़ुद को बचा लेते हैं। ऐसे संदेश निहित उपन्यास में प्रेम के साथ त्रासदी की उघड़ी बखिया मिलेगी आपको। गंधक के सोते-सा दर्द का खदबदाना मिलेगा। लेखिका ने इतिहास में जाकर विस्मृत होते ज़ख्मों को उचित प्रश्नों में बदलने की सफल कोशिश की है जहाँ दो अलग-अलग देशों के अलग-अलग काल के बावजूद घटित दर्द एक-सा ही रह गया है। आत्मा में दागे हुए पंजे की छाप एक-सी ही है, मन का हनन एक सा ही है और जहाँ अंततः धर्म, नस्ल और पुरुषत्व का ही डंका बजता दिखा है।
स्त्रियाँ सबसे आसान निशाना बनायी जाती हैं, चाहे बांग्लादेश हो या आउशवित्ज़, कहीं कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। असल में यह उपन्यास युद्ध के दौरान अमानवीय शोषण के शिकार और साक्षी रहे लोगों की कहानी कहते हुए विश्व की परिघटनाओं को सीधे रचनात्मक साहित्य के द्वारा हिंदी भाषा और हिंदी समाज में जोड़ देता है।
कथ्य में स्मृति की खुरंड उखड़ती रहती है बार-बार, जो ज़ख़्म
को ताज़ा कर देती है। विज्ञान और समाज-विज्ञान के बीच रीत बनकर बीत जाती है प्रेम
कहानी, जहाँ स्वाभिमान का आधिक्य है या स्वयं की खोज में
निकली नायिका का, यह द्वन्द रह-रह कर उभरता रहता है। वह
समुंदर की हहराती लहरों का शोर सुनती है और ख़ुद को थोड़ा और ढूँढने निकल पड़ती
है। अधूरी प्रेमकथा चाहे सबीना और आंद्रेई की हो या प्रतीति सेन और अभिरूप की,
इस उपन्यास के नेपथ्य का एक राग है जो अंततः द्रौपदी और विराजित के
अधूरे राग में गुम हो जाता है।
एक जगह लिखा है, लिखना मुझे मुझसे परे ले जाता
है। पर मुझे लगता है, लिखने के साथ-साथ कई बार कुछ मन का
पढ़ना भी आपको, आपसे परे एक नयी दुनिया में ले जाता है,
वर्तमान की सारी समस्याओं से दूर और शायद मैं अभी यही महसूस कर रहा
हूँ।
द्वितीय विश्व युद्ध कब का बीत गया पर खँडहर बनी इमारतें, जो ढह कर भी
किसी की स्मृति में घर बनाये हैं, जिसका दंश कितनी यादों को
आज भी कचोट रहा है। उस विष का असर उतारने के लिए हम ऐसी रचनाएँ लिखते हैं, तब पाते हैं कि पूरा का पूरा देश या देशों का समूह एक जाति में बदल जाता
है। यहाँ जाति का नाम कभी यहूदी है तो कभी पूर्वी बंगाली।
एक जगह लिखा है, – ‘हम सब किसी बहाने से ही
जीते हैं।‘ कम शब्दों में कितनी पते की बात। प्रेम हो या निर्वाण सब बहाने ही तो
हैं, अंतिम सच्चाई तक पहुँचने के लिए। खो देना और खोकर ख़ुद
को पाना और प्रेम ऐसे करना कि उसे रौशनी के लिए कहीं और जाने की ज़रूरत नहीं पड़े।
जीवन दर्शन के इस भाव से परिचित होना इस किताब की प्राप्ति है।
भाषा शैली अनूठी है, रुक-रुक कर बांग्ला भाषा का
प्रयोग पाठ्य प्रवाह में रंग भरता है । साथ ही साथ इस उपन्यास में कहीं-कहीं सुंदर
कविताओं का प्रयोग इसके कथ्य को विशिष्ट बनाता है। काव्यगत तत्त्वों का प्रयोग
उपन्यास में प्रेम के भावों, निजी दुःखों की अभिव्यक्ति लिए
रह-रह कर उभरता है।
जहाँ कहीं युद्ध होता है वहाँ केवल इमारतें ही क्षतिग्रस्त
नहीं होतीं अपितु बड़े पैमाने पर जनजीवन भी क्षत-विक्षत होता है। त्रासदी की इन
घटनाओं को इतिहास में जिस क्रम और रूप में लिखा गया है, उसके प्रमाण
को तथ्यों के रूप में साथ ही साथ क्रमबद्ध किया गया है, ऐसे
में ये भी लगता है कि उन स्त्रियों, बच्चों और मासूम लोगों
का क्या हुआ होगा ? क्या युद्ध में प्रेम के बीज ने भी कहीं
जन्म लिया होगा? इन यातना कैम्पों में स्त्रियों की
दुर्दशा और ख़ौफ़नाक मंजर की कल्पना शायद ही हम कर पाएँ। यह जानना भी ज़रूरी है कि
यह लोग कैसे अपने जीवन को वापस से शुरू कर पाए ! इसकी जानकारी इतिहास में बहुत कम
ही मिलती है। ऐसे में यह उपन्यास अपना महत्वपूर्ण रोल अदा कर रहा है और हमारे
समक्ष पूरे तथ्य के साथ उन कहानियों को रख रहा है।
उपन्यास के कथ्य के नेपथ्य में जीवन-दर्शन से भरी उक्ति रूपी
पंक्तियाँ चलती रहती हैं। पाठक उन पंक्तियों पर पराग में मधुमक्खी की तरह अटक जाता
है और उन शब्द रूपी पराग कणों को चुन लेता है, जो ताउम्र अब उसके साथ रहने
वाली हैं। एक जगह लिखा है, हर पेड़ की छाँव में ठण्डक
हो ज़रूरी तो नहीं। परिश्रम ही मुक्ति है, इस पंक्ति को आउशवित्ज़
के संदर्भ से मिलते ही कितना व्यापक विस्तार मिल जाता है। मुक्ति मिली अनचाही और
परिश्रम भी तो अनचाहा ही था और जिस मुक्ति की गूँज की असीम शांति, स्मृति-श्रद्धांजलि देने के लिए सारा संसार ध्यान शिविर लगाये उसे इस तरह
दर्ज होना ही था ।
यह किताब कभी आपको आत्मकथा तो कभी डायरी और फिर कभी कथेतर
लगेगी। दिन, महीने और साल के साथ दिए गए ब्योरे इसे कथेतर की ओर ले जाने की कोशिश में
लगे रहते हैं और इसी के साथ जब तैनात अधिकारियों और कर्मचारियो की तस्वीरों को
दिखाते हुए क़ैदियों के बयान का ब्योरा और ढेरों पत्राचार का ज़िक्र लगातार चलता
रहता है तो इस बात की पुष्टि भी होती है।
स्त्रियों को कीट नाशक से लगातार नहाया जाना और संभोग के लिए
यहूदी को छोड़ बाक़ी पोलिश, चेकी या अन्य देशों की स्त्रियों को चुनना, डॉक्टर
मेंगले का जुड़वें बच्चों पर किए गए प्रयोग सब बहुत चौंकाने वाली बातें हैं। गिरी
हुई इस मानसिकता को समझना लगभग नामुमकिन है। विडंबना से भरे जीवन में यह तय करना
भी मुश्किल रहा होगा कि सुंदर होना बेहतर है या बदसूरत।
इस किताब के द्वारा इज़राइल की उत्पत्ति और फ़िलिस्तीन की आज
की स्थिति को भी समझा जा सकता है जो कि बहुत ही कम पर सरस शब्दों में सार के तौर
पर समझाया गया है। पूरा वृतांत हसनपुर, बांग्लादेश, कोलकाता और आउशवित्ज़ के चारों ओर रचा गया है। दोनों जगह के दर्द अपने
चेहरे बदले हुए हैं पर दर्द की तासीर एक ही है। विस्थापन का कुरूप पक्ष, राजनीतिक हस्तक्षेप का भौगोलिक प्रभाव सब अंततः वहाँ के बाशिंदों पर ही
पड़ता है।
उपन्यास में रह-रह कर केंद्रबिंदु का किरदार बदलता रहता है।
प्रतीति, सबीना और धर्म परिवर्तन के चक्र से निकली द्रौपदी देवी बनाम रहमाना
ख़ातून। किताब जैसे-जैसे अपने डेग बढ़ाती है कथेतर कम और कहानी में ज़्यादा
बदल जाती है। गरिमा उपन्यास में वृतांत को तहों में एक-एक कर के
खोलती हैं। पूरा सच जान लेने की जिज्ञासा बनी रहे, इस सायास
प्रयास में वह सफल होती हैं, ख़ास कर प्रतीति की माँ एक
रहस्य बनकर नेपथ्य में चलती रहती हैं या टिया का सच!
शीर्षक ‘आउशवित्ज़- एक प्रेम कथा’ है पर यहाँ प्रेम कथाओं की
धार चलती रहती है। विराजित और द्रौपदी की / प्रतीति और अभिरुप की / सबीना और
आंद्रेयी की।
कुछ क्रूर कल्पना भी है, जो शायद सच भी हो जैसे–टिया का
थाली में पानी पीने और उसके बाद हुए कुकृत्य का ज़िक्र। टिया की कहानी रह-रह कर
टिमटिमाती है और जिज्ञासा बनाये रखती है। मौलवी अमान के माध्यम से लेखिका ने एक
अलग मानसिकता की ओर इशारा किया है जो पनाह भी देता है तो उसके कर वसूल लेता है।
बहुत ख़राब में थोड़ा कम ख़राब मसीहा की शक्ल-सा लगता है पर ईश्वर नहीं होता। इन
सभी घटनाओं के बीच प्रतीति कब रहमाना हो उठती है और कब रहमाना प्रतीति, यह पहचानना मुश्किल है। दोनों किरदार एक दूसरे को सम्भालते रहते हैं।
रहमाना की जिजीविषा अद्भुत है और जब वह मेल करना सीखती है तो संवाद और रोचक हो
उठते हैं।
सबीना और रेनाटा के संबंधों के माध्यम से लेखिका पाठक को एक
अलग परिदृश्य में लेके जाती हैं, जहाँ मानसिकता के प्रभाव का विवरण मनोविज्ञान
की पृष्ठभूमि पर रचा जा रहा होता है। एक जगह सबीना कहती है- “रेनाटा के पास अपने
परिवार का लहूलुहान इतिहास है, जिसके पन्ने उनके लिए कभी
पुराने नहीं पड़े। अतीत को काँधे पर लादे हुए वर्तमान की राह पर हम झुकी पीठ और
बोझिल कमर के साथ ही चल सकते हैं, भविष्य की ओर दौड़ नहीं
सकते।”
स्त्रियों की सामाजिक दुर्व्यवस्था का अत्यधिक गान, इस किताब
में एक-दो जगह भटकाव पैदा करता है (पन्ना 30), जो इस उपन्यास
को क्षण भर के लिए आलेख में बदल देता है। इसी बात को
लेखिका ने जब किरदार पर घटती घटनाओं के इर्द-गिर्द रचा है तो वह बहुत मार्मिक और
दिल को छूने वाले हिस्से बन जाते हैं। लेखिका को विषय के भीतर ऐसे विषयांतर से
बचना चाहिए। आगे जाकर संभोग और समझौते जैसे गंभीर विषय को सबीना के इर्द-गिर्द
रचकर इसी बात का सुंदर उदाहरण लेखिका ने ख़ुद प्रस्तुत किया हैं कि जटिल विषय को
कैसा ट्रीटमेंट मिलना चाहिए, यह इस किताब की यूएसपी है।
हालाँकि यह प्रेम कथा अधूरी प्रेम कथा ज़्यादा है पर इस
प्रेम-कथा के साथ इतिहास की युद्ध कथा कहने में या यूँ कहें कथा को बाँधें रखने
में गरिमा जी नहीं चूकतीं और अपनी बेहतरीन रचनाधर्मिता का परिचय दे जाती हैं। निज
के प्रेम, परिस्थितियों एवं अतीत के कहन में पात्रों एवं घटनाओं को उपन्यास में उचित
स्थान-क्रम देने में गरिमा श्रीवास्तव की शैली-भाषा तथा संवेदना ने पूरा साथ और
सहयोग दिया है। जिस संवेदना की ज़रूरत ऐसे कथ्य में होती है वह गरिमा जी के पास है
और बिना अतिशय के उन्होंने इस मुश्किल काम को किया है, जिसके
लिये वे विशेष बधाई की पात्र हैं।
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