विनय कुमार के काव्य-नाटक 'आत्मज' पर यतीश कुमार की समीक्षा
इस किताब की शुरुआत विनय
अपनी ही बात से करते हैं। यह एक तरह से इस रचना प्रक्रिया के घटने की स्वीकारोक्ति
है। पुस्तक की अपनी विकास यात्रा के दौरान हुए उनके अंतस के उथल-पुथल का संभाषण
है। यह गद्य ख़ुद में बहुत रोचक है, लेखक के अर्ध चैतन्य में इतिहास की खिड़की के अचानक खुल जाने
की अद्भुत गाथा है। अभी कुछ दिन पहले ही मैं पुस्तक ‘जहं जहं चरण परे गौतम के’
में डुबकी लगा रहा था और अब इस किताब ने अपनी शैली में मुझे बांध लिया। अगर यह
संयोग नहीं होता तो इस पुस्तक में मौजूद कमाल की रागात्मकता लिए मंजुल रचनाएँ इतनी
आसानी से मेरे गले नहीं उतरती। इन कविताओं में एक हिलोर है, एक
हिल्लोल है, लगभग संतुलित सानुपात प्रवाह है जो कि बहुत
मुश्किल होता है, मानो भोजन में नमक हो बिल्कुल स्वादानुसार
और मन के भीतर घुल जाए बिल्कुल आधा-आधा। पाठ करते समय दुलकी की लय का एहसास होता
है और फिर पढ़ने की कोशिश अंतस में उतरती चली जाती है।
कविता के कथ्य में दृश्यों
का प्रवाह है। एक तरफ़ कंथक की आँखें जहाँ दिगंत का अपना अनंत आकाश है तो दूसरी
तरफ़ राहुल और विमल के संवाद में ढले दृश्य-काव्य जब उठते हैं तब पलकें खुद-ब-खुद
उन दृश्यों में खोने के लिए बंद हो जाती हैं। यही क्षण है जब कविताएं युगों के पार जाने के लिए अपने
दरवाज़े पाठक के मन से गुजरती स्वयं ही खोलती हैं।
प्रेम योनि का शर्प योनि
में लौटने का वितान लिखते समय निश्चित ही लेखक के हाथ थरथराये होंगे जैसे पढ़ने के
बाद लिखते हुए अब तक मेरा मन थरथरा रहा है। बदन पर लटकती तख्तियों के नाम बदलते
हैं, यह सोच कर
ही डर सा लगता है। जैसे दर्पण के टूटने के बाद भी आवाज़ साबुत बची रह जाती है वैसे
ही एक झंकार की आवृति गुंजन के साथ कल्पना यथार्थ से मिलती है। पढ़ते हुए इसी गुंजन
से आपकी मुलाकात बार-बार होगी।
यह रचना बहुत सारी
हिम्मतों की जोड़ के यलगार से जन्मी हुई है। मानो एक रेज़ोनेंस की उत्पत्ति हो।
बिल्कुल वैसे ही जैसे मंत्र के पहले शंख बजा हो और उसकी ध्वनि नीलांबर में फैल गयी
हो। उसी नीलांबर के रेखाचित्र को कवि ने ज्यों का त्यों उतार दिया है।
यहाँ राहुल और विमल दोनों
की किलकिलाहटें हैं । दोनों का आत्मराग है। लास्य से बनी काया पर अपने शब्दों को
संतुलित करना हिमालय के त्रिंग शिखर पर स्वयं को स्थिर रखना है। अन्नाभाव में मरे
अन्नदाता की कहानी रचने का साहस आखिर कवि कहाँ से लाता है। सचमुच भाषा में मिले
राख़ से आग अलग करना आसान नहीं। भूख के दाँत, मनचीते का दंश, घोड़ों के क़ब्रों पर
दौड़ती है कार, जटा से उलझा हुआ चंद्रमा शिव को लिंगहीन होने
नहीं देता, अपनी चिता की आग से कोई बीड़ी जलाकर पीता दिख
सकता है जैसी पंक्तियाँ हृदय विदारक हैं।
बुद्ध तो भगवान बन गये अब यह समझना कि राहुल बनना कितना मुश्किल है और अंत में यह कहना कि पिता होना बुद्ध होना है। पढ़ते हुए अहसास होगा कि वह बुद्ध ही हैं जिन्हें किरणें गिराना आता है। ऐसा मेरा मानना है कि इल्हाम के अवतरण पर ही ऐसी रचना उतरती है। विनय जी को इल्हाम के उस ट्रांस में जाने की विशेष मुबारकबाद तो बनती है।
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