वरिष्ठ कथाकार उषा प्रियम्वदा के नए उपन्यास ‘अर्कदीप्त’ पर यतीश कुमार की समीक्षा
प्रेम, अकुंठ समर्पण, सर्वांग साहचर्य, आत्मा और देह में एकमयता की एक खोज, इन सब से मिलकर रचा गया यह उपन्यास `अर्कदीप्त'। जिसकी शुरुआत में बचपन की बातें यूँ लिखी गयी हैं, जैसे अपने घर-पड़ोस की बात हो रही है। संयुक्त परिवार और उसकी खट्टी-मीठी ज़िंदगी। एक जगह उपन्यास का नायक अर्कदीप्त गाय-भैंस से एकांत में कहता है मैं फर्स्ट आ गया। उसके बाद उनका रात भर रंभाने का चित्रण और फिर अनुगूँज में उभरता आर्तनाद सब बहुत मार्मिकता पूर्ण रचा है उषा जी ने।
इस उपन्यास में वितान मद्धम गति
पर है, पर रुक-रुक कर छोटी-छोटी घटनाओं का, बहुत भावुक कर
देने वाला सुखद झटका, आपको आगे पढ़ने के लिए एनर्जी पैकेट
देता रहेगा। कुछ-कुछ शब्दों का प्रयोग भी आपको चौंका देगा, लगेगा
यह शब्द जानते तो हम भी हैं, पर इतना सुंदर प्रयोग नहीं कर
पाते। `बनत’ शब्द को होंठ के साथ व्यंजना में लिखा गया है,
और भी कई शब्द हैं जैसे - पार्श्व, परिप्लावित,
तुष्टि, आपादमस्तक, नैकट्य,
नादीदापन, सानुपात, समगति,
साभिप्राय, सुस्थ, कोष्ठक,
प्रगल्भता, अनावृत इत्यादि जिनका समुचित
प्रयोग इस उपन्यास में बार-बार मिलेगा।
इस उपन्यास में आप एक ऐसी
स्थिति पायेंगे, जहाँ डूबे रहना आप्लावित रहने से ज़्यादा तुष्टिप्रदायक है, जहाँ खोने का मतलब पाना है। उस पूरे परिदृश्य और परिस्थिति के आलोक का
चित्रण बहुत सुंदर बन पड़ा है। इस किताब में प्यार अपने आप को ही अलग-अलग कोण से
निरीक्षण करता हुआ, महसूस करता हुआ मिलेगा। ध्वंसात्मक प्रेम
की छोटी उम्र की बात हो या ताउम्र साथ चलने वाले प्रेम की, मामला
यहाँ समर्पण और भरोसा का ही है। यहाँ यह भी पाएँगे कि एक जान होने के क्रम में स्व
का जाग जाना भी नींद टूटने जैसा है, सुंदर सपनों से अचानक
उठने जैसा। एक जगह इस उपन्यास की नायिका सौदामिनी कहती है “जब तुम जाने लगते हो तो
मैं थोड़ा-सा मरने लगती हूँ” । यहाँ जाना मरने का अभिप्राय दे रहा है। यहाँ प्रेम
दैहिक होते हुए भी देह से परे है। एक जगह और सौदामिनी कहती है “मैंने जीवन में
जितने पेड़ लगाये सूख गये” इस पंक्ति का दर्शन भाव कितना प्रबल है और कितना
मार्मिक भी।
यहाँ पायेंगे स्पर्श और संगत के
बंधन में प्रेम बंधता और फिर बींधता भी है। ख़ाली होना, भरना या फिर
थोड़ा ख़ाली होते ही छलछला जाना। यहाँ प्रश्नों का रेला मिलेगा आपको। क्या सही
स्थिति यही है और क्या इसका यही निदान भी ? पढ़ते हुए लगा
जैसे एक झूला पर बैठना है प्रेम। झूले का आलोड़न उसकी थाप है। थाप की गूँज में इस
किताब का रास्ता बनाया गया है, झूला आगे बढ़ता है तो वह सबसे
सुखद और पीछे झूलता है तो सबसे दुःखद! इसी आलोड़न के बीच एक झूले को ऐसी गति मिलती
है कि वह तीसरे ही फ्रेम को पा लेता है, जिसे दर्शन कहते हैं,
जो प्रेम से, जीवन से, इसकी
गति से ऊपर की अवस्था है।
स्मृतियाँ झिलमिला रही हैं।
बचपन बार-बार वापस आ मिलता है। लौटना ख़ुद को पाना है और यहाँ यह सिद्ध हो रहा है।
यहाँ यह भी पाएँगे कि आत्मा का हनन करके संभावनाओं को पार पाना कितना मुश्किल है
और फिर सोचने लगेंगे कि क्या ये सच में संभव है?
आगे आप समझेंगे कि जुड़ना असल
में उगना है, पर जुड़ाव अविश्वास से मिलकर घातक हो जाता है। स्वाँग की पहचान जीवन की
असली पहचान है। पेड़ कट चुका है, पर भीतर कहीं जड़ों में आस
अब भी बाक़ी है और इन सबके बीच स्मृतियाँ जल हैं, जो सींचती
हैं इस बचे हुए जड़ के आस को।
अंत में कहूंगा कि यह किताब एक
स्मृति यात्रा वृतांत है जहाँ संभोग से समाधि के बीच सहयोग आ गया है, जो अंततः समाधि
तक जाने के लिए एक पुल की तरह बुना गया है। प्रेम समाधि पर उगा लाल फूल है। अब,
जब भी आप उस बाग़ान में जाएँगे तो दोनों एक साथ मिलेंगे, दिखेंगे और आप वहाँ उगे एक फूल को तोड़ लेंगे और ख़ुद के रास्ते की खोज
में निकल जाएँगे। उपन्यास की प्राप्ति यही पँचपतिया फूल है, जिसकी
सुगंध आपके साथ रह जाएगी।
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