वरिष्ठ कहानीकार व उपन्यासकार जयंती रंगनाथन के उपन्यास ‘शैडो’ पर यतीश कुमार की समीक्षा
176 पन्नों में सिमटा कुलबुलाहट, जिज्ञासा और कौतुहल का मिला जुला ज़ायक़ा। जैसा नाम, वैसी ही कहानी अपनी प्रतिछाया लिए आगे बढ़ती है और उस प्रतिछाया में घुली है गुत्थीयों की एक शृंखला जो, कलम की अपनी छाया भी है । यह एक लेखक की ज़िंदगी को सामने रखकर लिखा गया उपन्यास है जिसमें, तरह-तरह की रोचक घटनाएँ घटती रहती हैं। उसकी ख़ुद की लेखनी कुछ समय के लिए भविष्यवाणी करती चलती है और भीतर की कुलबुलाहट को बढ़ाए रखती है। रहस्य को नेपथ्य में रखकर लिखे उपन्यास जिस तरह की लेखनी की माँग करते हैं, उस कसौटी पर यह अपनी सफल दावेदारी पेश करता है। इसके साथ ही किरदारों की बीती ज़िंदगी में घटी पेचीदी घटनाएँ आपकी जिज्ञासा बनाए रखती हैं।
मेरी आशा से कहीं ज़्यादा पेचीदगी है इस उपन्यास में। प्लॉट करवटें लेता है और आप हिचकोले। शुरू से ही आप इसके क़ब्ज़े में आ जाते हैं। छितराए हुए फ़्रेम भी ऐसे रखे हैं कि एक तस्वीर का साया दूसरे को अपने आग़ोश में लेता है और तस्वीर मुकम्मल होती नज़र आती ही है कि एक और सिरा खुला दिखता है, नया किरदार जुड़ता है, एक मोड़ कहानी को मिलता है और फिर उस किरदार का एक नया पहलू, पुराने किरदार से जुड़ जाता है और जन्म के पहले के बारे में जानने की इच्छा एक नया मोड़ ले लेती है।
उपन्यास सिलसिलेवार हल्के-हल्के झटके देता आगे बढ़ता है। आप खोए हुए पढ़ते चले जाते हैं फिर लगता है कहानी थोड़ी सी सपाट हुई कि एक तीव्र मोड़ और आश्चर्य बोध के साथ एक नया किरदार आपको अगले मोड़ तक ले चलता है। यह उपन्यास बहुत कसावट के साथ लिखा गया है और आप किरदार से बात करने लगते हैं।
अंतिम 20 पन्नों में कहानी मेरे जैसे पाठक को मिक्सी जैसी चकरघिन्नी में डाल देती है और फिर हम ढूँढते है कि स्वाद कैसा है? देखते-देखते बहुत सारी परतें एक साथ खुल जाती हैं, फिर पाठक किसे समेटे, किसे समझे, और किसी गुने! कुल मिलाकर उपन्यास आपको बांधे रखता है। लेखिका को बधाई ।
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