यतीश कुमार के संस्मरण संग्रह ‘बोरसी भर आँच’ पर युवा अध्येता रवि कुमार की पाठकीय टिप्पणी
'बोरसी भर आंच' आदरणीय यतीश कुमार का संस्मरण है जो
लेखक के मन में राख के भीतर परत दर परत जाने पर एक आग सुलगती दिखाई देती है ।जिसे
लेखक बोरसी भर आंच कहते हैं आंच इसलिए क्योंकि इसमें अनुभूति की गहनता है जिसे
गहराई से महशुस किया जा सकता है।यादों के साए में जीवन व्यतीत करते लेखक 40
साल पूर्व यात्रा पर निकल जाते हैं ।जाते वक्त अपना निजी जीवन ,ओहदा, नियति से प्रदत्त मुखौटा,सामाजिक जीवन जस का तस छोड़ जाते हैं ।बस साथ जाता है तो एक अबोध बच्चा
जिसे स्मरण के दौरान वे कई बार 'बेवकूफ' के रूप में स्वीकारते हैं। यह बच्चा बिना किसी हया, शर्म
के अतीत की घटना को हू-ब-हू छाप देना चाहता है या बाइस्कोप तैयार करना चाहता है जो
90 के दशक के मुंगेर, लखीसराय के
राजनीति का, जाति व्यवस्था का, उससे
प्रभावित जीवन का स्पष्ट चलचित्र हमारे समक्ष आता है। लेखक के जीवन का संघर्ष
निश्चय ही उन्हें तरासता है, वे आत्मवृति के दौरान 'समय से पहले बड़ा होने' की उपमा देते हैं।
जीवन का
संस्मरण इतना प्रभावकारी, रोचक, कौतूहल पूर्ण और नाटकीय होगा मैंने सोचा भी
नहीं था। मैं स्वयं बिहार की माटी और परिवेश में जन्मा हूं, अत:
इस यात्रा के दौरान अनेक बार स्वयं को खेत, खलिहान, अस्पताल, साइकिल, ट्रैक तथा
साड़ियों से बनी हुई दीवार जो संबंधों के बुनियाद की वजह से मजबूत थी, महसूस कर पाता हूं। किस्सा के भीतर छिपा किस्सा मुझे यह बताता है कि किस
प्रकार व्यष्टि की पीड़ा समष्टि की पीड़ा बन जाती है। कुछ समय निकालकर इसे मैं तीन
दिनों में ही पढ़कर खत्म कर देता हूं।
लेखक जीवन
वृत्त में किसी दर्शन या उपदेश का सहारा नहीं लेते ना ही कोई योजना बनाकर कुछ कहते
हैं। फिर भी हमें 'स्मृतियों के तपन' में हमारा अपना आग स्पष्ट और ऑच
की प्रचुरता के साथ दिख जाता है ।यह आत्मवृत्ति में कथा तत्व इतनी प्रमाणिकता से
प्रस्तुत है कि पाठक को उपन्यास के पढ़ने का आस्वादन होता है। लेखक के जीवन के
अभिन्न पत्र मां ,दीदीया ,भैया,
पिताजी प्रकाश सिंह, किउल नदी ,लखीसराय अस्पताल ,जमुना मामा, उर्मिला
मौसी ,पाल मामू ,डॉक्टर ईश्वर नाथ,
अपनी भूमिका में जीवन के कई पहलू को समृद्ध करते जान पड़ते हैं
वही यात्रा
में कई खलनायक भी है इसमें हरि चाचा, डाकिया चाचा आदि हैं। डॉक्टर साहब का
पारिवारिक जीवन में आना और चीकू का एकाकीपन , मां का प्रेम
भी छिन जाने की पीड़ा , हमें तुरंत मन्नू भंडारी के उपन्यास 'आपका बंटी' का पात्र 'बंटी'
की याद दिलाती है। भले ही चीकू और बंटी का परिवेश और जीवन स्थिति
अलग हो किंतु बचपन में अपने नैसर्गिक प्रेम की कमी एक जैसी है।
लेखक के
अभियंत्रण क्षेत्र से होने की वजह से भैया के व्यक्तित्व को समझाते हुए, बिजली के
नेगेटिव, पॉजिटिव तथा न्यूट्रल तारों का जिक्र करते हैं
।उनकी संवेदना ,कहन,परंपराबोध अपने
नयापन के साथ उपस्थित होता है। किंतु अनुभूति की तीव्रता तथा कथा को ज्यो का त्यों
प्रस्तुत करने का साहस, उन्हें सबसे अलग खड़ा करता है पाठकों
को अंतिम पन्ने तक बांधे रखता है । 'बड़की अम्मा' का चीकू के लिए यह संबोधन 'बिना बाप का बेटा है ,इसे अच्छा से खिलाओ पिलाओ, पता नहीं आगे क्या करेगा'
यह वाक्य लेखक के जीवन में आगे बढने की प्रेरणा है। उनका विश्वास 'निंदक नियरे राखिए,,,,' में सहज ही है।
लेखक
स्वीकारते हैं 'ऐसा कई बार हुआ जो मेरी मासूम बेवकूफियों का पता मां को नहीं चल पाया,
हर बार दीदी ने बचा लिया। बच्चों के लिए बेवकूफियां कितना मस्ती भरा
और स्वाभाविक होता है।
एक कवि कहते हैं:-
"हम अपने बेवकूफियां में
हरे भरे रहते हैं ,
चालाकियां इंसान को
ठूठ बना देती हैं।"
संस्मरण अपने अनूठे कहनऔर बेबाकी हेतु पाठकों में लोकप्रिय है जो साहित्य पढ़ने के उद्देश्य को पूर्ण करता जान पड़ता है।
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