गौतम चौबे के उपन्यास ‘चक्का जाम’ पर यतीश कुमार की समीक्षा
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उपन्यास का पहला पन्ना अभी दृश्य गढ़ने की भूमिका बना ही रहा था कि विडंबना दुविधा बन अपनी साँकल बजाने लगी। जाना और आना तो शाश्वत क्रिया है , पर इसका एक साथ घट जाना हमें दुविधा के ऐसे ही पल में डाल जाता है , जहाँ बस कसमसाहट बेआवाज़ टहलती है। रेल को जागृत आत्मा की उपमा देना कितनी सुंदर और औचित्यपूर्ण बात लगी। कालचक्र का रथ और उसके छह चक्के का विश्लेषण , दर्शन भाव लिए है। हर आदमी का अपना चक्का है , अब देखा जाये कि वह इस कालचक्र के रथ में फिट होता है या नहीं। “ तुमको देवानंद की क़सम है” पढ़ना उस समय में प्रवेश करना है , उस समय के परिवेश को समझना है। उपन्यास की पूरी पृष्ठभूमि पर उस समय के सिनेमा की छाया है , जैसे कालखण्ड का विवरण करने का टूल सिनेमा ही हो। यहाँ तक कि दोस्ती की नीव में भी फ़िल्मी कहानी है। रेलवे कॉलोनी का जीवन संसार रचा बसा है इस उपन्यास में। हरीश के संवाद में ब्रिटिश कॉलोनी के प्रभाव का असर साफ़ दिखता है। बात बात में अंग्रेजी की टाँग तोड़ते हुए उसे अपने डायलॉग में शामिल करना , कथावस्तु में मौलिकता को सुदृढ़ करता है , और इसे प्रासंगिक भी बनाता है। कथ्य की आवाजाही बीस-...