गौतम चौबे के उपन्यास ‘चक्का जाम’ पर यतीश कुमार की समीक्षा


उपन्यास का पहला पन्ना अभी दृश्य गढ़ने की भूमिका बना ही रहा था कि विडंबना दुविधा बन अपनी साँकल बजाने लगी। जाना और आना तो शाश्वत क्रिया है, पर इसका एक साथ घट जाना हमें दुविधा के ऐसे ही पल में डाल जाता है, जहाँ बस कसमसाहट बेआवाज़ टहलती है।  रेल को जागृत आत्मा की उपमा देना कितनी सुंदर और औचित्यपूर्ण बात लगी। कालचक्र का रथ और उसके छह चक्के का विश्लेषण, दर्शन भाव लिए है। हर आदमी का अपना चक्का है, अब देखा जाये कि वह इस कालचक्र के रथ में फिट होता है या नहीं।

तुमको देवानंद की क़सम है” पढ़ना उस समय में प्रवेश करना है, उस समय के परिवेश को समझना है। उपन्यास की पूरी पृष्ठभूमि पर उस समय के सिनेमा की छाया है, जैसे कालखण्ड का विवरण करने का टूल सिनेमा ही हो। यहाँ तक कि दोस्ती की नीव में भी फ़िल्मी कहानी है।

रेलवे कॉलोनी का जीवन संसार रचा बसा है इस उपन्यास में। हरीश के संवाद में ब्रिटिश कॉलोनी के प्रभाव का असर साफ़ दिखता है। बात बात में अंग्रेजी की टाँग तोड़ते हुए उसे अपने डायलॉग में शामिल करना, कथावस्तु में मौलिकता को सुदृढ़ करता है, और इसे प्रासंगिक भी बनाता है।

कथ्य की आवाजाही बीस-बीस साल के अंतराल की है और भाषा में दृश्य को गढ़ने के लिए शब्दों का चयन समयानुसार रखा गया है, हालाँकि यह आवाजाही कहीं-कहीं पर पठनीयता के क्रम में बाधक भी बनती है, पर घटनाओं का सिलसिला ऐसा है कि कथानक रोचकता को वापस ले आता है और पठनीयता की गाड़ी दौड़ने लगती है। लेखक की तारीफ़ यहाँ इसलिए भी बनती है, कि इतने विविध किरदारों को समुचित स्थान देते हुए समय की आवाजाही पर नज़र रखना आसान नहीं। कोतवाल ठाकुर, सिपाही बाबा, फ्रेंकलिन हो या नेपाल या फिर हरीश के दोस्तों की भीड़, सभी किरदारों का समुचित ख़्याल रखा गया है।  किताब में कई किताबों का भी ज़िक्र है, मसलन रामकुमार नवाज़ की ` कोहरा’। 

एक तरफ़ भद्रा में ईसाई, हिंदू, मुस्लिम और दूसरी तरफ़ बातों- बातों में मल्लाह और पण्डित के बीच के बदलते सामाजिक सामंजस्य को बहुत कम शब्दों में रेखांकित किया गया है इस किताब में। दोसरका गिलास की मर्यादा भंग करने का संदर्भ भी ज़रूरी हस्तक्षेप है, इस विषय पर ज़रूरी प्रकाश डालने के लिए। गौरतलब बात यह है की इन जातीय समीकरणों के फेर बदलाव को इतनी सहजता से रखा गया है कि ये कथ्य का ज़रूरी हिस्सा लगते हैं। घिघियाना,डगराना, भठ देना जैसे और कई देशज शब्द इस किताब को और मौलिक बनाते हैं ।

उपन्यास अपनी इस यात्रा में इतिहास के महत्वपूर्ण सूत्र इंगित करता चलता है। मसलन बाल विवाह को रोकने के लिए बनाया गया शारदा एक्ट '1929'  यह उपन्यास अपनी कथाशिल्प में फ़िल्मों की यात्रा को छिपाये है। रह-रह कर अलग अलग माध्यम से फ़िल्मों का ज़िक्र, समय का फ़िल्मों पर या यूँ कहें फ़िल्मों का मानस पटल पर असर की अपनी बात रखता है। दिलीप कुमार कि फ़िल्म 'गंगा जमुना' या बंगाली फ़िल्म 'सागीना महतो' का ज़िक्र हो या देवानंद की फ़िल्म 'गाइड' का या फिर बलराज साहिनी की फ़िल्म 'दो बीघा ज़मीन' का या फिर सरकारी फ़िल्म बनाने वाले पहले बिहारी, अरविन्द कुमार सिन्हा की 'ग्रहण' का ज़िक्र, सब अपनी दस्तक, अपनी महत्ता के साथ मौजूद है। रेडियो का ज़िक्र और चीनी लड़ाई के साथ लोहा सिंह के संवाद ने, उस समय को जस का तस खड़ा कर दिया है। इन सब के बीच देव का अपना द्वंद कि उसे क्या-क्या करना है, क्या बनना है, संकल्प और विकल्प के बीच टहलता देव!

बिहार, बंगाल, उड़ीसा और रंगून का परिदृश्य एक साथ चलता है इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में। इस विविधता का संतुलन बहुत मुश्किल है। उपन्यास का कथ्य इतनी गलियों से गुजरते हुए भूल भुलैया में तब्दील न हो जाए, लेखक ने इसका पूरा प्रयास किया है। बहुत कम शब्दों में नेहरू के योगदान कृषि से लेकर, सरकारी उद्योग के साथ पुणे फ़िल्म इंस्टिट्यूट तक का ज़िक्र यहाँ मिलेगा। यह किताब असल में बहुत धीमी आवाज़ में इतिहास के दस्तावेजों को यहाँ कथ्य की छाया में उकेर रही है।  इसी छाया में रेलवे की घटनाएँ भी दर्ज हैं। रेलवे की दुनिया इस उपन्यास की एक समानांतर दुनिया है ।

भाषा की राजनीति, छात्र रणनीति, रेलवे का हड़ताल और हड़ताल तोड़ने का गठजोड़, अलग-अलग राजनीतिक दलों की राजनीति के अपने समीकरण, सब यहाँ कहानी के नेपथ्य में टहलते हुए मिलेंगे। इसी नेपथ्य से उठे धमाके में जब नेपाल का शरीर हवा में उड़ता है, तब पाठक का होश, देव के होश की तरह उड़ जाता है। जब हरीश, रामजीवन चाचा की रेडियम वाली घड़ी और सलीम से मिला ताबीज़, देव की मुट्ठी में रखता है, तभी एक पाठक के तौर पर संदेह का घेरा काले बादल की तरह घेरता है कि कुछ अपशकुन होने वाला है, कहानी में कोई बड़ा ट्विस्ट आने वाला है।

एक अच्छी बात, जो पढ़ते हुए और अच्छी लग रही है कि देव के किरदार का ग्राफ जितनी तेज़ी से बढ़ रहा है उसकी पत्नी माधवी के किरदार के ग्राफ में भी उतनी ही तेज़ी से बदलाव आ रहा है। घर से बाहर निकल, सामाजिक न्याय की लड़ाई में, जिस तरह की सहभागिता और जिस तरह का नेतृत्व माधवी दिखा रही है, वह घर के भीतर और बाहर दोनों जगह स्त्री-पुरुष के बीच के व्यक्तित्वपूर्ण गुणों का संतुलन भी दर्शा रही है ।

यह उपन्यास देव का टेम्परेरी से परमानेंट होने के बीच की कहानी है, जो रह-रह कर अतीत में आवाजाही करता रहता है। एक की कहनी ख़त्म हुई नहीं कि दूसरी की शुरू हो गई। जुगनू से कई किरदार आते हैं भूकभुकाते हुए,आगे बढ़ जाते हैं। चैटर्जी बाबू, पद्मा भाभी, सत्या राव, चरणदास, घूमन, मुकेश या फिर डेब्बी उर्फ देविका।

कई बार पढ़ते हुए लगा कि यह किरदारों की नहीं घटनाओं की कहानी है। तारों-सी चमकती झिलमिल घटनाएँ, इस उपन्यास के आकाश को सुसज्जित कर रही हैं और इन तारों के बीच देव एक चाँद है, जो हर थोड़ी दूरी पर बादलों में गुम हो जाता है और फिर कभी हरीश, कभी नेपाल बनकर निकलता है। इस क्रम में अक्सर किरदारों का चेहरा गड्ड मड्ड होता नज़र आता है और फिर दो चेहरे याद रह जाते हैं, देव और माधवी।

इस किताब में किऊल का ज़िक्र देखते ही थोड़ा भावुक हो गया। अपनी मिट्टी की बात होते ही आदमी बच्चा बन जाता है और लोक स्मृतियों में खो जाता है। चक्का जाम कब की ख़त्म हुई, पर मन में घूम रही है। किरदार आज क्या कर रहे होंगे! यह सोच रहा हूँ। किरदार कल्पना और जीवन के बीच टहलते हैं। जीवन के किरदार से मिलने का मन हो उठा। गौतम चौबे ने कल्पना, यथार्थ और शोध की घुट्टी बनाई है। कथ्य और शिल्प उपन्यास की पृष्ठभूमि के अनुसार रखा है। समय में आवाजाही, संतुलित प्रवाह से ज़्यादा तेज़ी से हुई है। गौतम को एक अच्छे पठनीय और रोचक उपन्यास को लिखने के लिए ढेर सारी बधाइयाँ ।

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