प्रभात रंजन की किताब ‘एक्स वाई का ज़ेड’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

प्रभात रंजन की किताब एक्स वाई का ज़ेड पर यतीश कुमार की समीक्षा


किस्सगोई एक कला है और अगर वो संस्मरणात्मक कलेवर लिए हो तो और रोचक हो उठता है।

पहली कहानी ने मुझे अपने एक दूर के रिश्तेदार की याद दिला दी। वो कहती थीं कि सिगरेट पीने वाला लड़का मुझे ज़्यादा आकर्षक लगता है। समय के साथ सपनों के रंग बदलते हैं। सपनों में भी रूपक झिलमिलाते हैं, जिनकी शक्लें कभी डनहिल तो कभी अडिडास से मिलती हैं। सपनों की आपसी होड़ की कहानी है यह। बांबे 405 माइल्स को पढ़ने का मन कर गया। गानों से बुना संस्मरण आपको बहुत भावुक कर देता है। आप अपनी पुरानी दुनिया में टहल आते हैं।


कैसेट वाले दिन सच बहुत रूमानी थे। हमारी यादों में उन गानों का विशेष स्थान है जब रुमान परवान पर रहता था। प्रभात की सरस-सरल भाषा उस परवान की याद दिलाती है जो, आपके परवाने वाले रूप को फ़्लैश की तरह झलकाता है। आप तदुपरांत झील के पानी की तरह लहराते हैं, न ज़्यादा न कम। लेखनी का असली मतलब भी यही है कि आपकी संवेदना को तरंगित-कंपित कर दे और आप उस एहसास से तर-बतर ख़ुद में खो जाएँ, खुद के संस्मरण में गुम हो जाएँ।


प्रेम में ग़ज़ल कटेलिस्ट बन जाता है। प्रभात ग़ज़लों की पंक्तियों को यूँ सही जगह रखते हैं जैसे आइसक्रीम पर चेरी की टॉपिंग। ये संस्मरण टुकड़ों में कराह की दास्तान है। निशान और घाव का सम्बंध प्रेम और प्रेमिका सा होता है, चले भी जाते हैं और रह भी जाते हैं। प्रभात का संस्मरण इसी जाने और रहने के किस्से हैं। जीवन के उधड़े सीवन की दास्तान। ऐसी क़िस्सागोई यादों को कुलबुलाती है, वहाँ ले जाती है जहाँ कोई प्रेम को इतना कस के भींचता है कि वो धुआँ में तब्दील हो जाए। हर क़िस्सा कुछ ऐसी बातों को आगे बढ़ाते चलता है। क़िस्सा में अक्सर ऐसा लगता है जैसे रुक-रुक कर लेखक ख़ुद का नाम बदल कर किरदार का नाम दे रहा है वही तो है सिद्धार्थ, तो शायद सुनयना का भी कुछ असल नाम होगा ही।


पृष्ठभूमि में विछोह है। प्रेम आस्वाद से पहले कड़वा हो रहा है। इन क़िस्सों में जैसे दूध पीने से पहले फट जाए। कभी-कभी क़िस्सा यथार्थ बन जाता है और यथार्थ क़िस्सा, इसलिए यह कहानियाँ संस्मरण और क़िस्सागोई के बीच टहलती रहती हैं।


पूरे दिन एक ही कैसेट या एक ही गाना सुनने के भी दिन रहे हैं मेरी ज़िंदगी में और गाने दो तरह के हुआ करते, एक जो मोटिवेट करे, दूसरे जो प्रेम या विछोह के हों। "सदमा" या "मासूम" उन फ़िल्मों के नाम हैं जिन के गानों को आज भी दिन भर सुन सकता हूँ। इस किताब के एक हिस्से ने उन दिनों की याद दिला दी।


रिश्तों में गर्मी, बर्फीली जगहों पर ज़्यादा आती है। इस किताब के अंश उसी गर्मी और आँख के नीचे छिपी नरमी के आपसी समीकरण की कहानी कहती चलती है। किस्सगोई अचानक करवट बदलती है और 'देश की बात देस का क़िस्सा’ में बदल जाती है और इसके साथ प्रेम विछोह एक कटाक्ष में वो भी समाज पर, तंत्र पर, सत्ता पर और यह सिरा 'अनुवाद की ग़लती’ में और पैनी बनकर उभरती है । यहाँ तक आते-आते किताब का फ़्लेवर, कलेवर सब बदल जाता है। क़िस्सा एक प्रश्न चिह्न बन जाता है। बदलते क़िस्सों में कमलेश नाम का किरदार उभरता है। लगा गाँव में देखा था ऐसे किरदारों को। बाबा टाइप बने रहते हैं, सभी की मदद करते हैं और एक दिन गुम हो जाते हैं। भीड़ में सच कोई नहीं दिखता, किसी को नहीं पता भीड़ का चेहरा, बस आवाज़ होती है और गुड़प गुम!


प्रेम से विछोह और फिर मोक्ष से पहले मंदिर और मंदिर के पीछे विश्वास और फिर अंध विश्वास की कहानी मिलेगी इस किताब में। अंतिम कहानी पहले भी पढ़ी थी जानकीपुल पर और यह थोड़ी हटकर लगी भी थी। प्रेम की भरकन और वापसी। प्रभात की लगभग कहानियों में नायक या नायिका अपने प्रेम से बिछुड़ने के दर्द को साझा करते हैं पर, 'एक्स वाई का ज़ेड' में प्रेम अपनी भटकन की पूरी परिक्रमा करता है और अंत में अपने स्थिर बिंदु पर आ मिलता है। यहाँ एक सुखद अंत एक अलग ख़ुशी का एहसास करवाता है। लेखक को काठमांडू से विशेष प्रेम है, लगभग कहानियों में कहीं न कहीं इस शहर का ज़िक्र है और अंत वाली कहानी में भी यह शहर आ ही जाता है ।


बहरहाल प्रभात जी को ढेर सारी शुभकामनाएँ। यूँ ही सच्ची-झूठी कहानियों के झूले में हम सबको झुलाते रहिए। संस्मरण और कहानी दोनों का छौंक लगा रहे ताकि पढ़ने में रोचकता बनी रहे।

 

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