यतीश कुमार का संस्मरण 'बैरन डाकिया'

बैरन डाकिया (संस्मरण) - यतीश कुमार


पिछले दिनों वर्ष 1998 में आयी फिल्म दुश्मन की अचानक ही याद आ गई। इसी फिल्म का एक गाना मुझे बेहद पसंद है प्यार को हो जाने दो...। दोनों जुड़वा बहनों की भूमिका में काजोल का जबरदस्त अभिनय तो था ही लेकिन मुझे सबसे ज्यादा चमत्कृत किया था डाकिया की भूमिका में आशुतोष राणा की बेहद डरा देने वाली अदाकारी ने। इस किरदार में आशुतोष राणा ने जिस तरह आंखों, भाव भंगिमा और अपनी वजनदार आवाज का इस्तेमाल किया है उसका कोई सानी नहीं है। फिल्म के लिए उन्होंने फिल्मफेयर, स्क्रीन और जी सिने का बेस्ट विलेन का अवार्ड जीता।

फिल्म हो या कहानी या कोई कविता, इससे गुजरते हुए स्वभाविक तौर पर आप अपने आप को उसमें ढूँढने लगते हैं। कनेक्ट इस्टैब्लिश करने लगते हैं और फिर आपकी स्मृतियों में हलचल होने लगती है। खट्टी-मीठी स्मृतियाँ अवचेतन में निवास करती हैं। स्मृतियाँ गहरी नींद की तरह सुप्त रहती हैं और इसी नींद से उनींदी के सफर में कभी किसी रोज़ समय की सुई उल्टी दिशा में घूमते हुए हमें उस अवस्था में ले जाती हैं जहाँ तितलियों और गिलहरियों वाली ज़िंदगी चेतन में चलचित्र की तरह आने लगती है। भले हम उड़ने और कूदने में कितनी ही बार गिरे हों पर यादों को सबसे ज़्यादा अज़ीज़ वही पल होते हैं। गमलों के दस बजिया फूल हो या खुले लहलहाते खेतों में कालीनों सी बिछी पीली सरसों के दृश्य और इन पलों के बीच में बलखाता बचपन। कौन भूलता है उन खूबसूरत समय को जब उसी खेतों की मेड़ पर खुले आकाश और खिली धूप की में किताब सीने पर टिकाए और मुँह पर गमछा डाले घंटों पड़े रहते थे। सपनों की उड़ान देखने में उस वक़्त का अपना ही आनंद था।

बचपन अपनी नादानियों के साथ लुका-छिपी खेलते हुए बढ़ती गई। उन लुका-छिपी वाले पलों में कई पल ऐसे हैं जिन्हें याद करते ही शब्द किलकारी भरने लगते हैं और घटनाएँ मीठी मनौती की तरह याद आती चली जाती हैं। पर कुछ पल ऐसे भी होते हैं जो आत्मा पर अपने पंजे गड़ाए होते हैं। नासूर बन जाते हैं, लाइलाज ज़ख्म की तरह मृत त्वचा बन चिपक जाते हैं जिसे स्पर्श करते ही आप अपने आपको वापस अंधेरी गुफा के सामने खड़े पाते हैं।

बात उस समय की है जब लखीसराय में शहर से दूर सरकारी अस्पताल के ठीक पीछे एक छोटे से हिस्से में हम रहते थे। घर के सामने अस्पताल का ऑपरेशन थिएटर भी था। 80 के दशक में बिजली पूर्णिमा और अमावस्या की तरह समयानुसार आती जाती रहती थी। लालटेन और पेट्रोमेक्स का जमाना था। घर अस्पताल के बिल्कुल पीछे और सटे होने के कारण रोगियों के कराहने और चीखने की आवाजें, कुत्तों के भौंकने से ज़्यादा तेज़ और तीव्र होती। किताबों का उपयोग पढ़ने से ज़्यादा कान बंद करने में आता था। डिलीवरी रूम भी बगल में ही था, जहाँ से प्रसव पीड़ा और दर्दनाक चीखों से इतर जिजीविषा की किलकारी भी सुनाई पड़ती जो उन उदास समय के लिए सबसे उत्कृष्ट और जरूरी भेंट थी। दुरव्यवस्था में भी व्यवस्था के साथ सुंदर सामंजस्य लिए हम लोग ज़िंदगी काटने को अभ्यस्त हो चुके थे।

हम चौथी या पाँचवी कक्षा में रहे होंगे। हमारा परिवार चूंकि अपने मूल संयुक्त परिवार से कटकर अकेले रहता आया था इसलिए कोई पत्र-समाचार और हमारी सुध लेने कोई रिश्तेदार हमारे घर नहीं आते थे पर डाकिया चाचा अस्पताल और कचहरी में डाक बाँटने के बाद हमारे घर पानी पीने ज़रूर आते थे। चाय, बिस्किट और पानी पूरे अस्पताल में सबसे आसानी से हमारे घर में ही सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध रहता था। चूंकि अस्पताल शहर से तीन-चार किलोमीटर दूर था तो हर कोई जो साइकिल से अस्पताल आता, पसीने से लथपथ ही होता। डाकिया चाचा भी उन्हीं में से एक थे। जब भी आते पानी पीते और एक बार साइकिल पर बिठा मुझे अस्पताल का पूरा चक्कर घुमा देते, साथ ही अच्छी कहानियां सुनाते बिलकुल छोटी-छोटी पर बड़े बनने की सीख देने वाली। उनका व्यक्तित्व इतना सहज था कि उम्र का अंतर मिटा जाता था। गंभीर बातों को भी इतनी सहजता से समझाते कि उसकी क्लिष्टता परे रह जाती और संदेश दिल तक पहुँच जाता। हमें बहुत अज़ीज़ थे चाचा।

उन्हीं दिनों एक अंगूर बेचने वाला भी आता, दिन भर अस्पताल के सामने टोकरी में अंगूर बेचता और ढलती दोपहरी में हमारी तरफ से गुजरता, पानी पीता और मेरी आँखों में अपनी जलती हुई आँखे डालता और साथ ही हाथ में दो दाने भी। पता नहीं उस गरीब अंगूर वाले को मुझसे सहानुभूति थी या हमसे अमीर होने का सुरुर। शुरुआत में मुझे उससे दो दाने अंगूर लेना अच्छा नहीं लगता, लगता जैसे उसकी आँखों से गरम शीशा पिघल दो कंचों की शक्ल लिए अंगूर बन मेरी हथेली में उतर आया है। गरीबी और स्वाभिमान रोज आपस में लड़ते पर धीरे -धीरे मेरी आँखों का पानी सूख गया और मैं आराम से उसके दिए अंगूर के दो दानें को भी चाव से खाने लगा। शायद हृदय में पानी भी पत्थर बनने के सफर में था।



एक दोपहर की बात है, रोज़ की तरह डाकिया चाचा आए पर उनके हाथ में दुष्यंत कुमार की कविताओं का संकलन था। उन्होंने मुझे बड़े प्यार से देखा और किताब दे दिया, बिलकुल साफ परंतु दृढ़ गम्भीर स्वर में उन्होंने कहा इसे पढ़ना, क्रांति लानी है बेटा और सच्ची आज़ादी अभी बाकी है। मैं उनकी शक्ल में राष्ट्रपिता गांधी को देख रहा था। विनोबा भावे और महात्मा का मिश्रित चेहरा कई दिन तक मेरे सामने घूमता रहा था। उन्होंने यह भी कहा कि मेरे कार्यकाल का आज अंतिम दिन है और कल से कोई और आएगा पत्र बाँटने। स्नेहाशिष देकर मेरे माथे को चूमा और फिर कभी नहीं लौटे। उनकी मीठी यादें मुझे मेहनत करके और ज़्यादा पढ़ने को प्रोत्साहित करती रही।

इस घटना के कुछ दिन बीत गए। सब हमारे घर के बाहर रखे मटके का पानी पीने आते पर कोई डाकिया नज़र नहीं आता। धीरे-धीरे मेरी स्मृति में इंतज़ार की रबर चलती रही और डाकिये की छवि मेरे ज़ेहन से धूमिल हो ही रही थी कि एक दिन अचानक एक प्रौढ़ डाकिये ने घर में दस्तक दी। पतले दुबले और सांवले थे और उनके हाथ में हमारे लिए एक पत्र भी था। मुझसे कहा तुम्हारे भाई के नाम का पत्र है। भाई साहब बाहर आए तो ख़ुशी से झूमने लगे क्योंकि वो सैनिक स्कूल तिलैया की परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए थे और वह उनके दाख़िले का आमंत्रण पत्र था।

माँ के सिखाए अनुसार हमने नए डाकिये को भी पानी बिस्कुट और चाय पिलाई। उन्होंने खुशखबरी के बदले बख़्शीश और मिठाई माँगी जो हमारे बस में उस समय नहीं था। उस ख़बर ने हमारे बड़े भाई को हमसे दूर सैनिक स्कूल तिलैया पहुँचा दिया। अब दोपहर में मैं और दीदी दोनों अकेले घर पर रहते। माँ देर शाम काम से लौटतीं। पिता हमारी ज़िंदगी में बहुत पहले ही अनुपस्थित हो चुके थे।

समय के साथ नए डाकिया भी हमारे घर नियमित आने लगे। उनसे भी हम सब की घनिष्ठता पहले जैसे ही बढ़ने लगी। सब कुछ पहले की तरह ही सामान्य होने लगा। फिर से मैं डाकिया चाचा की साइकिल पर सवारी करता, वो मुझे एक पूरा चक्कर घुमाते और फिर मैं वापस घर लौटकर पढ़ने लगता। कुछ दिनों बाद डाकिया चाचा चॉकलेट भी लाने लगे, दीदी नहीं लेती पर मैं आराम से ले लेता। उसके हिस्से का भी। दीदी डाँटती पर मैं थेथर हो चुका था। चाकलेट अंगूर से मीठे लगने लगे थे।

एक दिन की घटना है। दोपहर ढलान पर थी। मैं अस्पताल के ठीक सामने खेल रहा था। अचानक देखा मेरे सामने डाकिया चाचा मुस्कुराते हुए खड़े थे। साइकिल उन्होंने वहीं खड़ी की और मुझे अपने साथ अस्पताल के अंदर चलने को कहा। उन्होंने जरा थैला पकड़ना, मैं ऊपर पहली मंज़िल पर ख़त देकर आता हूँ। शनिवार का दिन था और लगभग छुट्टी जैसा माहौल था। ऐसे समय में अस्पताल, अस्पताल नहीं श्मशान लगता है। अगर बिजली नहीं हो तो भीतर गैलरी में भी दिन में घुप्प अँधेरा सा हो जाता। ऊपर से जब डाकिया चाचा लौटे तो मैंने चिट्ठियों से भरा थैला अपनी गोद में लिया हुआ था। आते ही डाकिया चाचा ने मुझे गोद में उठा लिया। बड़े प्यार से बातें करने लगे। कोई परियों की कहानी सुनाने लगे जिसमें छोटे राजकुमार को पिता की तुलना नमक से करने का दंड मिल रहा था। अचानक कहानी के स्वर को धीमे करते हुए उन्होंने कहा कि मेरे साइड पॉकेट से चॉकलेट निकाल लो। मैंने आराम से एक चॉकलेट निकाल लिया। फिर उन्होंने कहा अरे जितने चाहिए ले लो और इतना सुनते ही मैंने अपनी पूरी मुट्ठी चॉकलेट से भर ली।

मैं बहुत ख़ुश था। दोनों हाथ चॉकलेट से भरे थे कि अचानक उन्होंने मुझे बहुत कस कर बाहों में भर लिया और चूमने लगे। पल में इंसान का चोला ज़मीन पर पड़ा हुआ था और मेरा सामना एक हैवान से हो रहा था। मुझे अचानक हुए इस आक्रमण का कोई अंदेशा नहीं था। मैंने जैसे ही चिल्लाने की कोशिश की उस दरिंदे ने अपने हाथ मेरे मुँह पर इतनी तेज़ी से रखा कि मेरी साँसे एक बारगी उखड़ने लगी। आँखों के आगे घना अँधेरा छाने लगा, मैं लगभग बेहोशी की हालत में था। यह सब इतनी तेज़ी से घट रहा था कि मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। मैं बिल्कुल असहाय सा महसूस कर रहा था कि अचानक एक दिव्य शक्ति के संचार ने कुछ करिश्मा किया और मैंने उसके हाथ पर अपने नन्हें परंतु नुक़ीले दाँत गड़ा दिए और उनके हाथ से ख़ून का फ़व्वारा फ़ुट पड़ा और दूसरे पल ही मैं उसके गिरफ़्त से बाहर आ चुका था। मेरे पाँव थरथरा रहे थे। अंधेरे में जो हल्की सी रौशनी दिख रही थी उस ओर गिरते-पड़ते मैं भागता चला गया।

अपनी चुप्पी के साथ मैं बाहर आ चुका था। अँधेरे की गिरफ्त से बाहर बेशुमार रौशनी थी। डाकिया बैरन वापस जा रहा था...

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