यतीश कुमार का संस्मरण 'बड़की अम्मा'

 यतीश कुमार का संस्मरण 'बड़की अम्मा' 


मेरा ननिहाल मुंगेर में था। लखीसराय से 55 किलोमीटर दूर मुंगेर का छोटा-सा मोहल्ला माधोपुर है। छुट्टियों में हमेशा में वहीं होता था। कभी मां से पूछकर, पैसे लेकर तो कई बार मां से रूठ कर बिना पैसे के ही पहुंच जाता। मुंगेर मेरे लिए तीर्थ स्थान से कोपभवन तक सबकुछ था। नाना-नानी, मामा-मामी ये रिश्ते बहुत प्यारे होते हैं। सभी उदासियों को निश्छलता से समेटने वाला बचपन स्वच्छंद आजादी से अपने पंखों को फैलाता है। यहां हद से ज्यादा बदमाशियां करते हैं तो भी वापसी में आपको मिलता है लाड़ और दुलार। जितना संरक्षण ननिहाल में मिलता है उतना शायद ही कहीं मिलता हो।

खैर, इस संस्मरण के केंद्र में है- बड़की अम्मा। आज इतने दिनों बाद भी मेरी स्मृति में उनकी डर की तस्वीर काबिज है। नजर को चाबुक, जिसने कहीं मेरे स्मृतियों की जमीन पर उगे नाजुक दूब को अपने पैरों से रौंदा है, जिसका असर पीठ पर सिहरन की तरह आज भी दौड़ता है। मेरे नाना दो भाइयों में छोटे भाई थे। घर अलग-अलग थे, लेकिन दोनों घरों की छतें मिली हुई थीं। रात को जब नाना दुकान से लौटते तो परिवार के सारे सदस्य एक साथ छत पर हो खाना खाते।

 


बिछावन भी सभी का अपनी-अपनी छत पर लगता। घर भीतर से कंपार्टमेंट जैसा था जिसे दीवारें अलग करती थीं, पर छत ने उन्हें जोड़े रखा था। चांदनी रात में बचपन की नजर से देखो तो पूरा छत एक सपाट मैदान सा प्रतीत होता। हम सब क्रिकेट से लेकर राजा-रानी सब खेल छत पर खेलते। शाम ढलते ही छत को पानी की फुहार से ठंडा किया जाता और फिर खाना और बिस्तर लेकर सभी पहुंच जाते। रात में सारा परिवार एक परिवार बन जाता था। अलग-अलग तवे पर सिंकी रोटियों का स्वाद भी एक ही होता। हम बच्चे किसी की भी बाली में बैठ जाते, हालांकि हर बच्चे का कोई पसंदीदा भैया, मामा या चाचा होते थे। थाली की तरह ही हाल नानी से रात को किस्से सुनने का भी था।

छोटी अम्मा और बड़ी अम्मा दोनों कहानियां सुनाती, पर बड़ी अम्मा की कहानी सुनाने का अंदाज अल्हदा था। दोनों की कहानियों का चयन महाभारत, रामायण या कोई और ग्रंथों से होता पर अंत हमेशा नसीहतों में मिलता।

रात में कहानी सुनाती दोनों अम्मा बड़ी प्यारी लगती, पर दिन में बड़ी अम्मा एक सख्त प्रबंधक बन जातीं, जिन्हें कोई भी गलती बर्दाश्त नहीं थी। धीरे-धीरे वक्त ने करवट ली और बड़की अम्मा की छत ऊपर उठती चली गई। छत के उठने का सीधा सम्पर्क दुकानों से था। जहां मेरे नाना की दुकान पर खपरैल ही रहा और बड़े नाना की दुकान चार मंजिला हो गई और बड़की अम्मा की कहानियों का सिलसिला छत की उठती दीवार में ढह गया।

बड़की अम्मा का छोटा पोता है मुकलेश, मेरा लंगोटिया यार। आज भी जब मैं मुंगेर पहुंचता हूं तो हम बचपन की स्मृतियों के रंग में मिल जाते हैं। बड़की अम्मा जिनके मुंह में पान और बगल में पीकदान हमेशा होता, सफाई की इतनी पसंद थीं कि पानी भी अपने दाग नहीं छोड़ सकता था। दिनभर नौकर-चाकर लोग जमीन घिसते रहते। उनके होंठ की जगह महीन चक्र सी रेखा थी जो उस उम्र में भी उन्हें और खूबसूरत बनाए रखती। वो कभी भी ऊंची आवाज में कुछ नहीं कहतीं, मेरे घर में आते ही बस हौले से एक आवाज तैरती, 'लगता है गोलू आ गया है।' मैं डरकर हौले से उनके पांव छूता तो आशीर्वाद में मिलता, 'बिना बाप का बेटा है, इसे अच्छे से खिलाओ, मां के बंधन से भाग के आया है। पता नहीं क्या करेगा।"

 मैं पांव छूकर हटता तो कहतीं, जाओ पहले हाथ-पैर धो लो। साबुन पता है न क्या होता है?" ये शब्द अदृश्य तीर थे चोट तो लगती थी पर निशान नहीं पड़ते थे। साबुन की टिकिया मुलायम के बदले मुझे सख्त लगती, लगता जैसे उसमें भी किसी ने शीशा बो दिया है।


उन दिनों टेलीविजन नया-नया आया था और पूरे मोहल्ले में सिर्फ उनके ही घर पर था। शुक्रवार और बुधवार को चित्रहार देखने से बड़ा आनंद कुछ नहीं था। सभी बच्चे पूरे परिवार के साथ उनके कमरे में लगी टीवी के सामने पहुंच जाते। अचानक एक सीधा सपाट सा स्वर मेरे कान में गर्म शीशे के घोल सा उतरता, तुम पलंग पर क्यों बैठे हो ? नीचे आराम से बैठो और पैर मत फैलाना।' मैं चुपचाप नीचे आकर बैठ जाता। महाभारत का दृश्य टीवी से निकल मेरे अंदर आ जाता, द्वंद और युद्ध एक साथ। उस बुरे वक्त का मुलम्मा था मुकलेश, जो चुपके बिस्तर से उठकर स्वतः मेरे बगल में जमीन पर बैठ जाता। उसके हाथ मेरे कंधे पर मित्रता के मफलर की तरह लिपट जाते।

बड़की अम्मा घर से ही पूरी दुकान का हिसाब रखतीं। जब बड़े नाना और बड़े मामा रात को घर लौटते तो मजाल है बिना हिसाब दिए कुछ और कर लें। किताबों में ये कौशलता और प्रबंधन के कायदे नहीं लिखे होते जिस गुण से वो अपने घर पर नियंत्रण और वित्त पर पकड़ रखती थीं। वहीं निर्धारित करतीं कि बेटियों को क्या देना है, घर में कौन क्या पहनेगा, कौन-सी चीज खरीदनी है और किसे कहाँ पढ़ना है।




फ्रिज उन दिनों नया नया आया था। हम सब के लिए एक अजूबा बर्फ के टुकड़े जादुई मुरब्बे से कम नहीं थे और शरबत में वो टुकड़े और भी सुर्ख और चमकीले हो जाते। ग्लास का साइज औरों के बनिस्बत मेरे लिए हमेशा छोटा ही रहता। किसे कब कैसे छोटा दिखाना है, यह बड़की अम्मा से बेहतर कोई नहीं जानता था। दोनों घरों में बिना विरोध के, उनकी बातों को बहुत सहजता से माना जाता था। किसको कितना और कहां पढ़ाना है दोनों परिवारों के लिए वहीं तय करती थीं। स्वाभाविक है बड़की अम्मा के घर के बच्चे हमेशा अपने आपको बेहतर समझते।

मेरी मां शुरुआत से ही विद्रोही रही हैं और इसलिए उनकी कभी भी बड़की अम्मा से नहीं बनी। मां की बड़ी और छोटी, दोनों बहनों पर बड़की अम्मा का जादू था। उन्हें उतरन और कतरन दोनों से बने कपड़ों में फर्क नहीं पता था, पर मां बहुत स्वाभिमानी थी इसलिए शुरू से उन्होंने नौकरी की और अपने पैरों पर खड़ी रहीं।

अपने पोतों से बड़की अम्मा को बेहद प्यार था। दोनों पोतों को वे उच्च अधिकारी बने देखना चाहती थी और जिसके लिए पैसा पानी की तरह बहता । जरूरत से ज्यादा ख्याल, खाने से किताबों तक की इफरात और घर पर हर विषय के शिक्षकों का तमाम इंतजामात कि कोई भी तकलीफ पढ़ने के रास्ते में न आ सके। मुझे इतने ताम-झाम देख कर डर लगता। मेरी घबराहट को वो बस मंद मापती रहती और फिर वक्र होंठ की रेखाओं पर स्मित फैल जाती जो श्वेत नहीं बरस स्लेटी होतीं। कोई खेल नहीं होते हुए भी हम ऐसे कई छोटे-छोटे तीखे खेल खेलते रहते। यह चित और पट का खेल सिर्फ आंखों से खेला जाता। पूरे घर में हम दोनों ही यह खेल खेल रहे थे, जिसकी खबर बाकी किसी घरवाले को शायद नहीं थी।


उनकी उम्र और ढलती गई। इस दौरान उनकी नजरों ने जितना आघात किया अनजाने ही मेरे अंदर उतनी ही आग पैदा होती रही। आठवीं के बाद मैं मुंगेर नहीं गया पर हमेशा बौना दिखाने वाली उनकी नजर मेरे साथ ही रहीं। मैं पढ़ते वक्त भी उनकी घूरती नजर को अपने डिबरी के बाजू में ही रखता। वो मुझे घूरते रहतीं मैं भी उन्हें देखता रहता और यूं नींद मेरी नजर से ओझल रहती। कई बार सुबह गोधूलि में ही उठ जाता पर वो आंखें जागी रहतीं। धीरे-धीरे मैंने उन आंखों से दोस्ती कर ली, शुक्रिया कहने लगा। कहने लगा अगर तुम नहीं जगाओगी तो कैसे जागता रहूंगा, कैसे सबसे ज्यादा पढ़ूंगा!


और यूं लम्बा समय बीता। मैं ननिहाल तब लौटा जब संघ लोक सेवा आयोग ने मुझे अपने लायक समझा। लौटा तो उनकी अंतिम सांसें चल रही थीं। घर थोड़ा उदास-सा दिखा। फ़र्श पर दाग, नौकरों की जमात में कमी, दीवार पर हल्की पपड़ी। सब कुछ बदल गया था।

मुकलेश अब सोना-चांदी की दुकान संभाल रहा था। उसने मुझे पहले की तरह ही गले लगाया, सम्भवतः वह मेरी कामयाबी को भी उतने ही गर्माहट के साथ गले लगा रहा था पर बड़की अम्मा अपनी टूटती सांसों में भी तिरस्कार भरी पैनी नजरों से देख रही थीं। मैंने हौले से उनके पांव इस बार भी छुए। वही स्लेटी स्मित होंठ, बिना आवाज की बातें, वही नजरों का खेल पर इतने पर भी उनका चेहरा आज भी पान की लालिमा लिए दमक रहा था।

फिर एक हल्की-सी आवाज आई, 'बिना बाप का बच्चा है, इसे कुछ तो खिलाओ।" मैं लौट आया, पर उनकी नजरें आज भी मेरे साथ ही हैं।

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