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Showing posts from May, 2023

मदन पाल सिंह के उपन्यास ‘हरामी’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

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कुछ किताबें शुरुआती पन्नों से ही पाठकों को अपनी गिरफ्त में लेना शुरू कर देती हैं। अपने अलग मिज़ाज़ और कथ्य को लेकर लिखे उपन्यास ' हरामी ' को पढ़ना शुरू करते ही कुछ सवाल मन में उपजते हैं और उनका जवाब भी वरक दर वरक खुलता चला जाता है। इसके पहले पृष्ठ में ही लेखक ने प्रसव की पीड़ा का मर्म इस तरह से उकेरा है कि मन में सवाल उठता है कि कोई पुरुष लेखक इस मर्म को इतनी गहराई से समझ सकता है क्या ?  हालांकि , इस प्रश्न का उत्तर भी जल्द ही मिल जाएगा आपको! संयुक्त परिवार में बिताए दिन एकबारगी आंखों के सामने चलचित्र के माफिक घूम गया। घनत्व से ज्यादा कुछ भी हो तो विदीर्ण होने लगता है। जब किरदार आपके विपरीत का हो लेकिन उसे पढ़ते हुए लगे हम ही तो हैं जिसे लिखा जा रहा है। किरदारों से ऐसी रिश्तेदारी यूँ ही नहीं होती हालांकि किरदार खलनायक फ़िल्म का संजय दत्त-सा हो जिसे आप पसंद करने लगें और प्यार से  कहने लगें - ' भोगा ' । इस उपन्यास को पढ़ते हुए लगा व्यंग्यात्मक शैली में लिखना कितना मुश्किल होता है और मदन पाल सिंह ने काशी नाथ सिंह और परसाई का रास्ता चुना और उसे बखूबी निभाया भी। किताब में सधी

रक्षा दुबे चौबे के कविता संग्रह ‘सहसा कुछ नहीं होता’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

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रक्षा दुबे चौबे हमारे समय की सशक्त कवयित्री हैं। उनके यहाँ उनकी कविताओं में स्त्री सवाल स्वाभाविक रूप से आते हैं। रक्षा को इसका जवाब भी भलीभांति मालूम है। वे उन वर्जनाओं पर सीधे प्रहार करती हैं जो समूचे वैश्विक समाज के मन मस्तिष्क पर सहस्त्राब्दियों से कब्ज़ा जमाए हुए हैं। रक्षा जीवन , खासकर अपने आस पास के जीवन को अपनी कविताओं में यथारूप रेखांकित करने का सफल प्रयास करती हैं। प्रख्यात समालोचक विजय बहादुर सिंह इस कवयित्री के नवीनतम संग्रह को पढ़ते हुए उन्हें बताते हैं "तुम्हारे भीतर जो सहज कवि उपस्थित है उसकी निगाह जितनी अनुभव प्रवण है , संवेदना उतनी ही तरल और मार्मिक है। तुम्हारा कवि जीवन के प्रत्येक पल को इस अनुभव में दर्ज करता रहता है जो इसकी अहरह सजगता के चरित्र को रेखांकित करता है। ' हाल ही में रक्षा का नवीनतम काव्य संग्रह ' सहसा कुछ नहीं होता ' प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह का शीर्षक अपने आप में काफी अर्थवान है। दरअसल यही अर्थवत्ता रक्षा की मजबूती है जो उनके संग्रह की कविताओं में स्पष्ट दिखायी पड़ती है। कवि यतीश कुमार ने रक्षा दुबे चौबे के इस संग्रह पर एक सूक्ष्म नज़र डाल

राकेश मिश्र के काव्य-संग्रह 'शब्दों का देश' पर यतीश कुमार की समीक्षा

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वो डरते हैं मेरे सपनों से राकेश मिश्र अपनी कविताओं की श्रृंखला के शुरुआत में ही संवाद और उसके विस्तार पर ज़ोर देते हैं। सच है कि आज ज़्यादातर समस्याओं के जड़ में संवाद की अनुपस्थिति है। वो प्रकृति से भी संवाद की पैरवी कर रहे हैं और ` आना’ कविता के माध्यम से प्रकृति की ओर लौटने यानी गांव लौटने की वकालत भी कर रहे हैं। वो पेट की भूख से ऊपर उठने की बात करते हैं । शुरुआती कविता ` आज फिर’ ने ही चौंका दिया। इस कविता को पढ़ते समय यह गीत सी ध्वनि देने लगा। दरअसल , यह एक धार लिए कविता है जो अंत में कहती है- ` आज फिर मैंने मरने से मना किया’। यहाँ कवि को धरती मोरपंख सी सुंदर लग रही है। यह इस संग्रह का बहुत खूबसूरत सा मोड़ है और इस मोड़ पर कवि को सपने हिरन जैसी कुलांचे मारते दिखते हैं। कविताएं पढ़ते हुए मेरी स्मृति में केदारनाथ अग्रवाल जी की प्रकृति से जुड़ी कविताएं कौंधने लगीं। यहां राकेश मिश्र ऐसी ही मधुरता गढ़ने में सफल हो रहे हैं जब वे लिख रहे हैं कि ‘यह सच है , प्यार में पहली नजर पाँवों को ही लगती है।‘ ‘कारा अलग और अपराध एक’ लिखते समय कवि प्रेम से शब्दों की नकारात्मकता को भी निकाल फेंकते

वंदना राग के उपन्यास ‘बिसात पर जुगनू’ पर यतीश कुमार की काव्यात्मक समीक्षा

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सुना है कि पुराने ज़माने में जुगनुओं को एक डिब्बे में बंद कर उससे रात में राह देखने की कोशिश की जाती थी और स्त्रियाँ घर को अँधेरे से मुक्त रखने का काम लेती थीं। वन्दना राग द्वारा रचित ‘बिसात पर जुगनू’ भी अंधेरे समय के डिब्बे में बंद रोशनी की उम्मीद की प्रेरणा है। इकबाल के शब्दों में कहें तो – चमकने से जुगनू के साथ इक समां हवा में उड़े जैसे चिंगारियाँ इस उपन्यास में भी अतीत के अँधेरी पृष्ठभूमि से जुगनुओं की लौ के ऐताहासिक कथ्यों और तथ्यों का अद्भुत ताना-बाना है। प्लॉट जिगर है , बैकड्रॉप नजर है। रोचकता , संभाव्यता तथा मौलिकता कथानक के कथ्य में यूँ घुला है जैसे फूल में पराग। उपन्यास ऐसा जो तिलिस्म बुन दे और आपको अपने संसार में ले जाए। किसी किताब को पढ़ना योग-साधना की तरह ही एक अलग अनुभव है बस माध्यम अलग है। इसके पहले कुछ ही किताबों जैसे ‘कितने पाकिस्तान’ , ` दीवार में एक खिड़की रहती थी’ को पढ़ते हुए मेरे साथ ऐसा हुआ है। दोनों बिल्कुल अलग-अलग फ़्लेवर की किताबें हैं पर असर एक सा ही , ‘ जादुई’। इस उपन्यास को पढ़ते हुए कुछ ऐसा ही हुआ और इसके साथ -साथ अगर आपको ‘कितने पाकिस्तान’ , ‘ मैला आँ

श्रीप्रकाश शुक्ल के काव्य-संग्रह ‘वाया नई सदी’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

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कविता का काम सिर्फ़ संवेदना व्यक्त करना नहीं है अपितु समय-समय पर समय के विरुद्ध आवाज़ भी उठानी है ताकि सामाजिक संतुलन कायम रहे। काव्य-संग्रह ‘ वाया नई सदी ’ में कवि चुप्पी के साथ सत्ता को चेतावनी देते हैं और उसके पीछे चुप्पी की एक पूरी श्रृंखला चलती है। श्रृंखला भी ऐसी जिसमें प्रकृति से प्रेम और चिड़ियों की चहचहाहट को सुनने और महसूस करने का भरपूर समय है। एक तरफ कोरोना के उपरांत का दुख है तो दूसरी तरफ बनारस के घाट और मुक्ति का सुख। समय के सम्मुख प्रश्न करने की हिमाक़त तो एक कवि ही कर सकता है। एक विकट स्थिति का ऐसा खांका एक कवि ही खींच सकता है- बहता हुआ शहर लटक रहा था पुल से और एक बहुत पुरानी नदी अपने किनारों में कराह रही थी! ` रेत में धँसा पुल!’ कविता की यह एक पंक्ति आज की वस्तुस्थिति की स्पष्ट तस्वीर साफ़गोई के साथ रख देती है। यह पाठकीय दायित्व है कि इन कविताओं को बहुत सावधानी से पढ़ा जाए , क्योंकि अगर मारक शब्द का प्रयोग छूट गया तो हाथ से कविता फुर्र हो जाएगी । कवि पहली ही कविता ‘ यह कैसा मौसम है’ में कंधे पर हाथ और पैर रखने का अंतर समझाते हैं। यह कविता उनके बारे में है जो अपने