राकेश मिश्र के काव्य-संग्रह 'शब्दों का देश' पर यतीश कुमार की समीक्षा


वो डरते हैं
मेरे सपनों से

राकेश मिश्र अपनी कविताओं की श्रृंखला के शुरुआत में ही संवाद और उसके विस्तार पर ज़ोर देते हैं। सच है कि आज ज़्यादातर समस्याओं के जड़ में संवाद की अनुपस्थिति है। वो प्रकृति से भी संवाद की पैरवी कर रहे हैं और `आना’ कविता के माध्यम से प्रकृति की ओर लौटने यानी गांव लौटने की वकालत भी कर रहे हैं। वो पेट की भूख से ऊपर उठने की बात करते हैं ।

शुरुआती कविता `आज फिर’ ने ही चौंका दिया। इस कविता को पढ़ते समय यह गीत सी ध्वनि देने लगा। दरअसल, यह एक धार लिए कविता है जो अंत में कहती है- `आज फिर मैंने मरने से मना किया’। यहाँ कवि को धरती मोरपंख सी सुंदर लग रही है। यह इस संग्रह का बहुत खूबसूरत सा मोड़ है और इस मोड़ पर कवि को सपने हिरन जैसी कुलांचे मारते दिखते हैं। कविताएं पढ़ते हुए मेरी स्मृति में केदारनाथ अग्रवाल जी की प्रकृति से जुड़ी कविताएं कौंधने लगीं। यहां राकेश मिश्र ऐसी ही मधुरता गढ़ने में सफल हो रहे हैं जब वे लिख रहे हैं कि ‘यह सच है, प्यार में पहली नजर पाँवों को ही लगती है।‘

‘कारा अलग और अपराध एक’ लिखते समय कवि प्रेम से शब्दों की नकारात्मकता को भी निकाल फेंकते हैं और कहते हैं- ‘दुःख एक है, कारण अलग!’ कवि आज के यथार्थ को भी भली-भांति समझता है और महसूसते हैं कि हवा से नमी ग़ायब है, पसीने से नमक और बैठक से ग़ायब है विमर्श। इसलिए तो कवि बारंबार संवाद की वकालत करते हैं।

जंगल कविताओं की पूरी श्रृंखला जंगल की दास्तां दोहराती है और कहती है कि जंगल अब हमारे घर तक आ चुका है। इन कविताओं में चेतावनी भी दर्ज है जो साफ़-साफ़ कहती है, ‘आज असावधानी सबसे बड़ी चूक है।कम शब्दों में सटीक बात करने वाले कवि राकेश मिश्र की कई कविताएँ मन-मस्तिष्क पर चोट करती हैं। व्यंग्य घुला उनका यह लहजा बहुत चुपके से अपना रंग चढ़ाता है। कई कविताएँ शृंखलाबद्ध हैं जैसे- ‘आज रात’, ‘देह’, ‘भूख’, ‘जंगल’, ‘उम्मीदें’, ‘सपने’, ‘प्रेम’, ‘साँप’, ‘मृत्यु’, ‘यादें’ इत्यादि…

अब अगर आप गौर से देखें तो शीर्षक खुद एक नयी कविता में ढल रही है। इन कविताओं के बीच चहलक़दमी करते-करते या तो कोई पंक्ति हाथ पकड़ कर चूम लेती है या फिर कोई अपने पास बिठा लेती है। वहीं, कुछ पंक्तियाँ ऐसी भी हैं जो करारा तमाचा की तरह हैं और उसकी गूँज लिए आप शून्य में सन्न ताकते रहते हैं। कवि लिखते हैं,  `भूख तो कभी-कभी खुद की अंतड़ियाँ चबाकर ही खत्म होती है’। यहां कविता अंधेरे और भूख के बीच एक पुल जोड़ती है। अंधेरा किसी न किसी को खाता है, बस उसका मुँह किस ओर है यह पता नहीं चलता।

कई जगह एक कविता दूसरे को जोड़ते चलती है। इन कविताओं में छाया, अंधेरा, परछाई ये सब जैसे एक दूसरे से गुंथे हुए हैं। इन कविताओं में एक विशिष्ट चपलता भी है जब शब्दों में कोई कुछ संगीत बिखेरता है और फिर कहता है, ‘गर्दन प्रेम के लिए कोमल जगह है जहाँ जल्लाद फाँसी भी उसी समर्पण से लगाता है। और ऐसे समय में  एक वाजिब सवाल अपना सिर उठाता और पूछता है- दुनिया में सुंदरता हाशिए पर है क्योंकि हम ये नहीं सोचते कि हमने दुनिया को क्या सुंदर दिया है।

कवि कहते हैं, दर्द की बसावट का बर्फ पिघला नहीं है इसलिए दुनिया को सभ्य होने में अभी वक्त लगेगा। स्त्रियों के बिलखने के संतुलन को बनाए रखने के लिए सूख जा रहे हैं बादल और चारों ओर से आ रही हैं सिर्फ़ कुल्हाड़ियों की आवाज़ें। कवि अपने कान बंद कर सोने की कोशिश में भयानक सपनों के बादलों से घिर जाते हैं। ठीक यहीं से उनसे संवाद बिठाने की भी कोशिश करने लगते हैं।

इन्हीं संवादों के बीच, मैं एक कविता के ठीक पास आकर वैसे ही ठहर जाता हूँ, जैसे बादल ठहरता है उस ओखल पर और वहाँ लिखा मिला-

काले-भूरे बादलों के
नन्हें दल
जब गुजरते हैं
उजाड़ वनों से
तब सूखते पेड़ों की
चटकती शिराएँ
थोड़ी नम हो जाती हैं
ख़ून का रिश्ता है
आख़िर।

एक जगह कवि बहुत ही मासूम गुहार लगाते हैं जिसमें मृत्यु के बाद भी जिजीविषा के न मरने की बात है। यहां कवि ने जीवन दर्शन के सार को और वृहत तरीके से समेटते हुए कहा है-

एक पीपल लगाना मेरी राख पर
बड़ा होकर रहना चाहता हूँ
चिड़ियों के पास
सीखना चाहता हूँ
उनकी भाषा
गाना चाहता हूँ
उनके गीत

यहाँ इन कविताओं में पाता हूँ कि भागता हुआ आदमी उनींदा होता है। आधे सपनों का मालिक, जिसके सपने पूरे नहीं होने हैं। उस बेकार आदमी से बेवजह पूछा जाता है उसका हुनर और वह जब भी प्रेम करता है बदल जाता है उसका कारोबार। यहाँ कवि की आँखों से दिखायी जा रही दुनिया बड़ी दिलचस्प है, जहाँ एक एकांत से निकलकर दूसरे एकांत में टहलता है मानस, जहाँ राहें भटकती हैं और बदलती भी हैं। हालांकि जब मंज़िल तक पहुँचती हैं तो वो अकेला है, एकांत ही अब मंज़िल है। जीवन-दर्शन को उजागर करते हुए कविता आगे बढ़ती है, और कहती है-

मैं पीता हूँ उनका दूध
गायों को नहीं पता
मैं पीता हूँ
उनके हिस्से का भी दूध
बछड़ों को नहीं पता

मैं अनुपयुक्त रहा
शुरू से ही उनके लिए

यहां एक सजग कवि दर्द को माँजता है, प्रकृति के ऋण को चुकाने की बात करता है। अपने गांव लौटने की बात करता है। प्रकृति से अथाह प्रेम की बात करता है और कहता है- ‘एक जागा हुआ आदम और क्या करेगा कि कविता में बहा देगा अपनी संवेदना या एक अनघटे बदलाव के लिए संचित करेगा उससे निकली ऊर्जा।हाथियों के पैरों से बंधी ज़ंजीरों कवि को परेशान करती है, शिकारियों के आहट से उसे चेताती रहती हैं मछलियां और वो अपनी आँखों में डबडबा लेता है समंदर का पानी जब देखता है भूखे कौवे की कांव-कांव के बीच दबी हुई एक चींटी को।

राकेश मिश्र की कविताओं से गुजरते हुए लगा कि कैसे कवियों की चिंता एक समान होती हैं। इन कविताओं के मर्म में मैं अपनी कविता के दर्द देख रहा था और फिर सोच रहा था कि संवेदना की टेर का सुर एक ही होता है क्या?

बेचैनी एक सी चित्कारती है और प्रेम मुस्कराता और चहकता भी एक सा ही है। बस पैरहन का मामला है और इस बात से मैं खुश भी हूँ और आश्वस्त भी कि संभावना कभी नहीं मरती क्यूँकि भावना एकमय होकर अंतरिक्ष में भ्रमण करती रहती  हैं और कवियों से टकराती रहती हैं। इसे ही प्रेरणापुंज बनाकर कवि एक सुर में रचता चला जाता है।

बुजुर्ग माता-पिता के बारे में हो या फ्लाईओवर के नीचे बनती अलग दुनिया के बारे में, चौराहे पर परेशान कुत्ते के बारे में या अकेले में रोते पिता के बारे में, यहाँ सब कुछ बहुत सलीके से रचा गया है, जिसमें संवेदनाएं संपूर्णता के साथ समाहित हैं।

कवि लिखते हैं-
आश्चर्य है धरती टुकड़ों में नहीं समूची गोल है
गोल धरती
टुकड़ों में दर्ज है

और यह लिखते हुए उन्हें मनुष्य के सपने भी टुकड़ों में दिख रहे हैं और उन्हें बचपन में देखा हुआ दृश्य सताता रहता है जब बिलाव द्वारा अधखाई मुर्गियों के रंगीन पंख पोखर में मिलते हैं और मिलता है मछलियों के मुँह में लगा ख़ून। वो परेशान है इस बात से कि मोहल्ले के हर गली में वो कुतिया जो जनती है आठ-आठ बच्चे हर साल वो सब कहाँ विलुप्त हो जाते हैं, बचपन से ही विलुप्त…

कवि देह को तिलिस्म कहते हैं और फिर उस तिलिस्म के सारे दरवाज़े भी खोलते हैं और कविताओं में जीवन-दर्शन को समझाते दिखते हैं। मनुष्य की खोज जारी रहे, जारी रहे उसका समर्पण। हालांकि शिव को खोजे बिना समर्पण की तो खंडित मूर्तियां ही मिलेंगी और खंडित मूर्तियों की पूजा नहीं होती। खंडित सुंदरता को कोई देखना नहीं चाहता, खंडित मन को कोई सुनना नहीं चाहता! यहाँ सबको चाहिए प्लैटर पर परोसा गया गोश्त और सिम्फ़नी का अखंडित संगीत।

और अंत में एक कविता `दुखी मत होना कवि’ का ज़िक्र ज़रूर करूँगा। उनकी ही पंक्ति उन्हें सौंपता हूँ कि प्रार्थना का शास्त्र जानना है तुम्हें अभी, एक लकीर खींचनी है जिससे मज़दूर का सही चेहरा बने और चाहे जितना भी कोई कहे अस्वीकार तुम्हारी नियति है कवि तुम दुखी मत होना।

यह कहा जा सकता है कि, संग्रह ‘शब्दों का देश’ विकास-विपदा, द्वेष-द्वन्द, संघर्ष-सम्मान, सकारात्मक-नकारात्मक आदि पर जहां प्रश्न खड़ा करता है वहीं इन पहलुओ पर तंज कसते हुए सही दिशा की बात भी करता है। पठनीय होने के साथ-साथ यह संदेशात्मक भी है। इस सुंदर संग्रह के लिए मेरी ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।

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