वंदना राग के उपन्यास ‘बिसात पर जुगनू’ पर यतीश कुमार की काव्यात्मक समीक्षा
चमकने
से जुगनू के साथ इक समां
हवा
में उड़े जैसे चिंगारियाँ
इस उपन्यास में भी अतीत के अँधेरी पृष्ठभूमि से जुगनुओं की लौ के ऐताहासिक कथ्यों और तथ्यों का अद्भुत ताना-बाना है। प्लॉट जिगर है, बैकड्रॉप नजर है। रोचकता, संभाव्यता तथा मौलिकता कथानक के कथ्य में यूँ घुला है जैसे फूल में पराग। उपन्यास ऐसा जो तिलिस्म बुन दे और आपको अपने संसार में ले जाए।
किसी किताब को पढ़ना योग-साधना की तरह ही एक अलग अनुभव है बस माध्यम अलग है। इसके पहले कुछ ही किताबों जैसे ‘कितने पाकिस्तान’, `दीवार में एक खिड़की रहती थी’ को पढ़ते हुए मेरे साथ ऐसा हुआ है। दोनों बिल्कुल अलग-अलग फ़्लेवर की किताबें हैं पर असर एक सा ही, ‘जादुई’। इस उपन्यास को पढ़ते हुए कुछ ऐसा ही हुआ और इसके साथ -साथ अगर आपको ‘कितने पाकिस्तान’, ‘मैला आँचल’, ‘आधा गाँव’ एक साथ याद आएँ तो यह उपन्यास में उपस्थित विविधता और इसकी रेंज का ही कमाल है। 1840 से 2001 की पृष्ठभूमि को मद्देनज़र रखकर यह उपन्यास रचा गया है और इतने लम्बे काल-खण्ड को फ़्लिप फ़्लॉप वाली शैली में ख़ूबसूरती से समेटना सच में आसान नहीं ।
अतीत खिड़की में लगी चिंदी की तरह फड़फड़ा कर अपनी दास्तान सुनाता है। हर दो पन्नों के बाद इसका प्लॉट और रोचक होता जाता है। क़लम चित्र-शैली की व्याख्या के साथ-साथ रंग तैयार करने की बारीकियों का वर्णन और चित्रण बहुत गहनता से किया गया है। इतना ही सुंदर विवरण रंगों के बारे में कुणाल बसु लिखित उपन्यास `चित्रकार’ में है। उसी की तरह इस उपन्यास में भी इतिहास और फिक्शन का ज़बरदस्त समागम है। इस उपन्यास को लिखने के लिए बेहद संयम और समय की ज़रूरत पड़ी होगी,किसी तप से कम नहीं है ऐसी कृति रचना। चीन और भारत के 161 सालों के इतिहास को यूँ पिरोना, अंग्रेज सरकार की भूमिका को समेटते हुए और इसके साथ आज़ादी की लड़ाई के बीच कला और साहित्य की साधना तथा विस्तार का समुचित विवरण इस उपन्यास को और भी अधिक पठनीय बनाता है।
इस उपन्यास के कालखण्ड के बदलाव के साथ मैं भी भटकता रहा और समेटता रहा नयी-नयी जानकारियाँ। जगत सेठ का ज़िक्र ‘कितने पाकिस्तान’ में पढ़ा था, यही ज़िक्र कृष्ण कल्पित के महाकाव्य ‘हिन्दनामा’ में भी मिला था, पर इस उपन्यास में पटना से जगत सेठ का सम्बन्ध और वहाँ से उनके कोलकाता जाने का भी ज़िक्र है। इसी तरह प्रवीण झा की `गिरमिटिया’, मृत्युंजय सिंह का `गंगा रतन बिदेसी’ और अखिलेश का लिखा `निर्वासन’ पढ़ा था, सभी में गरीब लोगों को अन्य देशों में एग्रीमेंट या बिना एग्रीमेंट के ले जाने का ज़िक्र है।यहाँ भी इन सब विषयों पर समुचित चर्चा है।
इस उपन्यास में चार पीढ़ियों की कहानी दर्ज है, जिसकी शुरुआत एक महान क़लमकार चित्रकार ने की और हर पीढ़ी अपना इतिहास भूलती गई। अब बची है तो बस एक खोज उन चित्रों की जिसे ढूँढने चीन से एक फ़रिश्ता आया है। इस उपन्यास के किरदार सच में कथानक को विशिष्ट बनाते हैं। अलग-अलग काल खण्ड में किरदारों का आपसी जुड़ाव विस्मित करता है। रुकूनुद्दीन और विलियम अलग-अलग पृष्ठभूमि से आए प्रेम और कला में आबद्ध एक दूसरे को निश्छल प्रेम करने वाले प्रेम कबूतर-से किरदार हैं। निश्छलता पर कब धुँध छा गयी, कब काले बादल आ गए ख़ुद उन कबूतरों को पता नहीं चला और प्रेम नीलांबर से सिमट बेहद सुर्ख़ नदी में समाहित हो गया। बिजली और पेड़ के प्रेम में दोनों का ख़त्म होना ही असल अंत है। समलैंगिक प्रेम के पवित्र रूप को इतनी ख़ूबसूरती से रचा गया है कि यह उस समय के समाज में भी असहज नहीं लगता। पाठक इन किरदारों को भरपूर प्यार देंगे।
ख़दीजा बेगम और शंकर लाल ये दोनों ही किरदार अनोखे हैं। सुमेर सिंह और परगासो जातीयता, ऊँच-नीच, गरीबी-अमीरी जैसे सारे बंधनों, सारी सामाजिक सीमाओं को तोड़कर मिलने वाले युगल हैं। इस जोड़े में स्त्री को कितना क़ाबिल, समर्थ और नेतृत्व शक्ति से लैस दिखाया गया है। अंग्रेजों से लड़ाई में भी वो सबसे आगे रहती है, अंत तक टिकी रहती है। ली-ना अत्यंत जिज्ञासु प्रवृत्ति की है, जिसमें असीम संयम है ।
ईसा मसीह के छोटे भाई होंग के अवतार और माँचू क्रूर राजा के विरुद्ध लड़े गये चीन के बड़े गृह युद्ध ताइपिंग विद्रोह (Taiping Rebellion) के बारे में इसी उपन्यास में पढ़ा। जब ज़्यादा खंगाला तो पता चला कि दक्षिणी चीन में चला भयानक विद्रोह हांग जिकुआंग के नेतृत्व में 1851 ईसवी में संपन्न हुआ। इस युद्ध की पृष्ठभूमि में उपन्यास का एक हिस्सा रचा गया है और कथेतर की तरह प्रतीत होता है। परंपरागत चीनी धर्मों की खिलाफ़त करने वाले हांग ज़िकुआंग ने धर्मांतरण करके ईसाई धर्म अपना लिया था। वे एक ऐसे साम्राज्य की कल्पना कर रहे थे जहाँ पर किसी के पास निजी संपत्ति नहीं होगी तथा सामाजिक वर्गों एवं स्त्री पुरुषों के मध्य कोई भेदभाव नहीं होगा। इस उपन्यास में चांग, जो कि होंग का दाहिना हाथ था, का अद्भुत चित्रण तथा उसकी वीरगति के दृश्य का बेहद मार्मिक वर्णन है। उसकी पत्नी, यू-यान टाइपिंग विद्रोह की नायिका, उनका बेटा चिन कैसे हिंदुस्तान में एक चिकित्सक बन गया ? इस पूरी यात्रा की गाथा है यह।
बहुत चुस्त तरीक़े से रचा गया उपन्यास पाठक को यूँ बाँधे रखता है जैसे कोई रहस्यमयी फ़िल्म। फ़तेह अली ख़ान इस उपन्यास का ‘संजय’ है। एक विशुद्ध यायावर, चित्रकार, रचनाकार, दार्शनिक किरदार जो पूरे उपन्यास को जोड़े रखता है।
बिहार की देशज भाषा, जो मूलतः उत्तर बिहार की है, उसका उर्दू के साथ किया गया स्वाभाविक प्रयोग इसे और सरस बनाता है। उसी क्षेत्र का होने के कारण मुझे पढ़ने में और भी आनंद आया। बीच-बीच में कुछ उक्तियाँ ऐसी की मन मोह लें। ऋग्वेद हिरण्य गर्भ सूक्त (सृष्टि के प्रारम्भ) को जिस तरह से जोड़ा गया है। वह लेखकीय प्रतिबद्धता का सटीक उदाहरण है। बेगम हज़रत महल, रानी लक्ष्मी बाई, सावित्री फूले, बाबू कुँवर सिंह न जाने कितने इतिहास के वीर और वीरांगनाओं के संदर्भ इस उपन्यास में रह-रह कर प्लॉट को और विशिष्ट बनाते रहते हैं ।
एक जगह `तमाम’ होने का प्रयोग मुहावरे-सा है जो कि एक सुंदर उद्धरण है और यूँ कहे कि इसे पढ़कर मैं ही भी तमाम हो गया। एक दो छोटी बातें थोड़ी सी खटकी जैसे कि कलकत्ते से चीन लाई हुई छेने की मिठाई बच्चे को चित्र बनाते समय फ़तेह अली ख़ान देता है। छेना तीस दिन से ज़्यादा टिक जाए यह साधारण बात नहीं जबकि उस समय तीस दिन तो यात्रा में ही लग लग जाते थे।
एक रोचक प्रसंग है जिससे जाना कि 1873 में अमेरिकी लोग चीनी नूडल्स के दीवाने हो गए थे। मिथोलॉजी पर आधारित पीरियड नॉवेल लिखने के क्रम में रचनाकार को अनेक काल्पनिक स्वतंत्रता स्वतः प्राप्त होती है लेकिन इतिहास-सम्मत कृतियों के साथ यह सुविधा नहीं होती। दोधारी तलवार है यह – पहली बात तो यह कि आप उस कालखंड के साक्षी नहीं हैं, और दूसरी बात कि आप इतिहास के साथ कल्पनाशीलता की उतनी ही आज़ादी ले सकते हैं कि तथ्यों के साथ छेड़छाड़ नहीं होने पाए। इस दृष्टि से ‛बिसात पर जुगनू‘ एक श्रमसाध्य उपन्यास है। कुल मिलाकर कहूँ तो यह एक पठनीय और संग्रहणीय उपन्यास है।वन्दना राग और राजकमल प्रकाशन दोनों को विशेष बधाई।
इसे पढ़ते हुए उत्पन्न मनोभावों एवं संवेदनाओं ने मुझसे जिन कविताओं का सृजन करवाया वे मेरे लिए भी बेहद सुखद रहा और यहाँ प्रस्तुत है।
1.
भूला
हुआ क़तरा हूँ
बचे
ज़ेहन में है खेत की मेड़
याददाश्त
अच्छी है अब भी
पर
यादों से माँ-बाप बिसर चुके
रसूख़
की लड़ाई है
मंदिर
की आरती और मस्जिद की नमाज़ से
ज़्यादा
ऊँची हो गयी इन दिनों
गिरजे
की घंटी की आवाज़
एक
मकतब है
जहाँ
तहज़ीब के साथ
नक़्शों
की भाषा बताई गयी
ताउम्र
एक नयी लिपि अब तारी है
नक़्शा
याद रखना
ज़मीन
से जुड़े रहना है
नक़्क़ाशी
आत्मा है
और
यात्रा उसकी ज़िंदगी
2.
दारोग़ा
और बेड़ियों की शक्ल
हर
देश में एक जैसी होती हैं
और
हुक़ूक़ के गीतों के सुर भी
पर
जिज्ञासा और अदावत भी अपनी धुन में हैं
ख़ून
की लकीरें मिट्टी पर काला तिलक हैं
एक
कराह के तुरंत बाद
एक
अट्टहास गूँजता है
और
सुर्ख़ लकीरें मिट्टी में बदल जाती हैं
मज़लूमों
के ख़ून से सना है चौराहा
सब
ख़त्म है बस एक आवाज़ को छोड़कर
जो
विश्व भर में गूंजते हुए कहती है
कि हर
चौराहे का एक पाँचवाँ रास्ता होता है।
उलूक
की भी एक भाषा है
जो
बन्दूकों के निचले स्वर से
गाई
जाती है
और
जंगल जाग जाता है
3.
गले
मिलने का सबब
धड़कन
सुनना नहीं होता
अबोध
को यह भी बोध नहीं
कि
निरीहता एक संक्रामक रोग है
अबूझ
की चवन्नी
बचपन
के गुल्लक में टपकती
अमला
और शीरीं हैं
जामन
तासीर लिए उम्र भर कचोटता है
पाने
और खोने से अलग
नज़रिया
खोजता है वह
जागी
आँखों से सोता है
सोई
आँखों में जागता है
समय
की चाल देवता का इशारा है
नजूमी
चुप हैं और फ़लसफ़ी परेशान
इन्हें
पता है `एतमाद ‘
शतरंज
के खेल का हिस्सा नहीं होता
4.
दिल
में एक खाई ने
अभी-अभी
जगह बनायी है
हृदय
का एक हिस्सा धँस गया
और
चेहरा दुःख की लकीर का पोर्ट्रेट बन गया
उसकी
आवाज़ में धमक है
उभरी
बड़ी आँखों में
भरी
हुई है गहरी झील
और
भीतर है चुप्पा सी बहती नदी
मिट्टी
में छुपी ख़ुशबू की तलाश है
उसे
बताया गया देवता आसमान में अब नहीं रहता
मिट्टी
में घुल गया है
वह अब
मिट्टी से देवता बनाती है
ज़ेहन
में खुद गई हैं सब तस्वीरें
और वो
बाँकुरी आँकुरी बन गयी
उसने
जानवर को नहीं
दुश्मन
को मारना सीखा
5.
नदियों
की लहरों में कहानियाँ तैरती हैं
बालुओं
में धँसते पाँव के निशान
अनकही
कहानियों की तरह
बनते-बिगड़ते
रहते हैं
प्रकृति
अपने खेल में निमग्न
ख़ालिस
सुंदरता को
शाश्वत
सच की तरह
उकेरना
चाहता है
एक
उपासक धार को परखने में मग्न है
कला
और साधना जब मिलती हैं
तो
लिखे नाम मिट जाते हैं
और
सीधे हृदय में टंकित होते हैं
गंधों
की भाषा पढ़ने वाले
ख़ुशबुओं
को उगाने वालों से मिल गए
एक
नाज़ दूसरी नज़ाकत
बिजली
क्या पेड़ से मिलने वाली है ?
सादगी
और हुनर की उम्र नहीं होती
कोई
पूछता सुरमई अखियों वाली से
ये
क्या उकेर रही हो पंखों की क़लम से
तो वो
बिना शर्म के कहती ‘मोहब्बत’
6.
दो
देशों के दोस्त
ऊब कर
एक साथ कहते हैं
मेरा
देश रहने के क़ाबिल नहीं रहा
और
पृथ्वी अट्टहासों से लिपट गयी
राजा
और रंक
दोनों
एक ही पशोपेश के शिकार हैं
सफ़ेद
रंग कितना भयावह हो सकता है
सुख
को मज्जे से निकाल दुःख भर देता है
पीढ़ियों
पर ज़िम्मेदारी है
कि
विरासत की वल्गा सम्भाले,
नहीं
तो काल का ग्रास
सबसे
पहले कलाओं का भण्डार होता है।
देश-विदेश
का नक़्शा
पढ़
सकता है वह
चालबाज़ी
का नक़्शा कैसे पढ़े
धुँध
की दुनिया से सवेरे का सूरज नहीं दिखता
पर वह
यह भी जानता है
कि
जिज्ञासु के लिए
देश
एक
फलांग भर है
7.
ख़बरों
से सिर्फ़ दिल ही नहीं
आबोहवा
भी भारी है
बेढब
बेहिसाब साँसों का खेल
शतरंज
के खेल में फँस गया है
इस बीच अदावत
अपनी
भाषा ईजाद कर रही है
अपने
अपनों की बेड़ी बन रहे हैं
जिन्हें
नहीं जानता
वो
मुझसे मुहब्बत करते हैं
ख़ुलूस
का पुरसुकून है आँखों में
बिना
बताए मेरा दर्द समझते हैं
कभी-कभी
किसी को
यूँ
सच कह देना
थोड़ा
सा मार देना होता है
8.
कौतूहल
की पवित्रता मुस्कराई
मोहब्बत
की अलख जल उठी
एक
फूल पहले छाया बना
फिर
ढाल बन गया
स्वाद
नहीं ख़ुशबू का दीवाना है वह
फेनिल
चादर सपनों के समंदर में लहराई
और
लिपटी
तो दो
ढाल एक दूसरे में घुल गए
भरोसे
का पलड़ा देवताओं पर भारी है
कल्पना
और अंजाम मिल गए हैं
हर
कारामाद अब है अंजाम की ओर उठा कदम
बोसे
में भी घुली हुई है आज़ादी की कशिश
9.
व्यापार
और व्यवहार पूरक हैं
व्यापार
धर्म है और धर्म बंधन
व्यापार
में आनंद का पौधा
कब
युद्ध का पौधा बन जाए पता नहीं
देश
व्यापार नहीं नशे में है
मौसम
कई बार बदलते हुए नहीं दिखता
नेह
की बारिश और जेठ की दोपहरी
जाते
नहीं जाती
सारी
जातियाँ मिट कर
देशी
और विदेशी बन गए
देश
मानो दीमक का सैकड़ों खोह बना दरख़्त
यह
लकड़ी और चिंगारी के मिलने का समय है
इतिहास
स्मृतियों का हस्तांतरण है
और
हस्तांतरण जारी है
टीस
और स्मित
समय
की पगडंडियों की तरह मिलती हैं
10.
बाग़ी
होना पापी होने से कहीं बेहतर है
देश
बदलते हैं ज़मीन बदलती हैं
पर
फ़ितरतें नहीं बदलती
जज़्बे
नहीं बदलते
बेकल
बरसात और झुलसाती धूप
एक
साथ कहाँ चलती हैं
उनके
बीच चलता है
एक
अनवरत इंतज़ार
कभी-कभी
ख़ुशी कुलाँचे मारने लगती है
बरसों
के अनवरत इंतज़ार का अंत
यूँ
अचानक होता है जैसे
उसे
उसी दिन होना है
यह
अनवरत इंतज़ार
उम्मीद
का मौसम है
वो देखो
एक अहिंसा का पुजारी
लाठी
टेकते-टेकते चला आ रहा है।
Comments
Post a Comment