कुमार अम्बुज के कथा-संग्रह 'मज़ाक' पर यतीश कुमार की समीक्षा
मूर्त
और अमूर्त तकलीफ़ों को ढूँढ़ने निकले लेखक ने एक-एक कर चुना है भूले बिसरे खोये
विषयों को। जैसे - गुमना, भूल जाना, मज़ाक़
बन जाना, विश्वास या उसका प्रयायरूपी, भरोसा
खो जाना, विस्मृति,
भुलक्कड़ी, सम्मोहन, वशीकरण, ख़ब्तपना, लापरवाही
और भी बहुत कुछ, जिसके अंत में सपनों से भी मिलना होगा आपको।
सेहन
बनकर घूमते हुए, छुपते हुए,
घटते
हुए जगहों की तलाश है कहानियों को, जिसके नीचे
बैठकर कुछ धूप के टुकड़े और कुछ रात की रानी को एक ही थाली में सजाया जाए। कुमार
अम्बुज अपनी पहली कहानी में गुमने की जगह ढूँढ़ने निकले हैं। गुमना और छिपना एक
सिक्के के दो पहलू हैं और पहलू का एक जैसा होकर भी अलग-अलग होना कितना स्वाभाविक
है यह कहानी का अंत तय करता है। अपनी एक जगह कम होना यहाँ भीतर-बाहर दोनों का
मामला है। वो गली स्मृतियों का पुराना रास्ता भी तो हो सकती है। कुमार अम्बुज मानो
गुम होने की प्रक्रिया का विस्तार कर रहे हैं और ऐसा करते हुए हर पैराग्राफ में
जैसे लगता हैं हमारे (पाठकों) दिल की बातें कर रहे हैं। ऐसा ख़ास तब और बेहतर रचा
जाता है जब, कोई कवि गद्य लिख रहा होता है। गद्य के नेपथ्य
की धुन सीधे पाठकों के दिल से जुड़ जाती हैं।
ऐसा
ही मुझे मनुष्य होने के संस्मरण पढ़ते हुए महसूस हुआ था। पढ़ते हुए मेरी गुम होने
की इच्छा प्रबल हो रही है, जैसे सबको
दिखते हुए भी गुम रह सकूँ, मानो
किसी ने उस मोड का बटन दबा दिया है। संकुल चट्टानों के बीच किसी को यूँ याद करने
का आत्मीय उद्यम करने वाले कवि या लेखक की ऐसी आपबीती दुर्लभ है।
अगली
कहानी में ही लेखक गुम होने से हटकर भूल जाने की बात में मुब्तिला है। क्या वह कुछ
ऐसा करने की कोशिश कर रहा है जिसे हम देखते हैं,
झेलते
हैं, पर उस ओर आपकी सघन दृष्टि नहीं जाती। हम उस
भूलने वाले को भूलने की कोशिश तो नहीं करने लगते। पूरे सिस्टम का उसकी ओर
दृष्टिकोण कैसा है। सच इस भागती दुनिया में ठहरकर ऐसे मनोवैज्ञानिक ज़रूरी समस्या
पर बात करने की लेखक की यह पहल मज़ाक़ नहीं अपितु एक गंभीर प्रयास है जिसका नाम ही
उसने `मज़ाक़’ रख दिया है। यह कटाक्ष पूरे सिस्टम और
ख़ुद के भीतरी सिस्टम दोनों पर दोतरफ़ा है। जैसे कहा जाता है गंभीर अभिनय करना
आसान है, बजाय हँसाने के! यहाँ लेखक गंभीर बात करते हुए
तरह-तरह के मज़ाक़ कर रहा हैं जो कि कुनैन की गोली
से कम नहीं। एक गोली खाइए और थोड़ा कसमसा के मुस्कुराइए। ज़िंदगी की समझ में थोड़ा
इज़ाफ़ा होगा।
कुमार
अम्बुज ने मज़ाक़-मज़ाक़ में रुलाने की इस कला में महारत हासिल कर ली है। इस
मज़ाक़ में दर्शन का पुट मिला है जो रह-रह कर उभरता है। इतना कहना कि पिता का खोना,
गुम
होने का आखिरी कोना गुम होना है, जैसे जीवन
दर्शन बोध इन कहानियों से गुजरते हुए टकराते हैं और आपकी आँखें मज़ाक़-मज़ाक़ में
हँसते-हँसते रो देती हैं।
वे
लिखते हैं “हम सब एक-दूसरे को हमेशा मरते हुए ही तो देख सकते हैं। इससे ज़्यादा
कोई कुछ नहीं कर सकता। लेकिन तुम सब मिलकर इतनी गंभीरता से इस काम को अंजाम दे रहे
हो जैसे किसी को मरते हुए देखना कोई मज़ाक़ हो।” और फिर बात यहाँ ख़त्म नहीं होती
आगे प्रश्नों की झड़ी लगाते हुए लिखते हैं “ तो क्या यह दो सौ सालों की नाउम्मीदी
है? दो सौ साल का क्रोध?
दो
शताब्दियों का निर्वात?”
लेखक
हर कहानी में अपने गूढ़ संदेश को बहुत चुपचाप से खोलता है जैसे हरसिंगार रात में
चुपके से गिरे और टपकते हुए दिखे नहीं। चुपके से लिखते हैं अच्छे आदमी और भरोसे के
आदमी में ज़मीन आसमान का अंतर हो सकता है और ऐसा पढ़ते हुए मुझे प्रिय लेखक पंकज
मित्र जो, ख़ुद कटाक्ष की शैली के पंडित हैं, की
याद आती है और वो कहानी स्मरण हो आती है, जिसका नाम हैं `अच्छा
आदमी’।
आगे
चलते ही बड़ी तेज हँसी आयी जब पढ़ा, शेयर बाजार का
लेखकीय हिन्दी अनुवाद रसातल है।
आगे
जिस विश्वास के उतरन का जिस प्रकार ज़िक्र है वह बहुत ही रोचक है जैसे विश्वास न
हुआ समय रूपी प्याज़ का छिलका हुआ, एक-एक कर समय
के साथ उतरता गया और जब सब छिलके उतर गए तो अविश्वास का पहला सबसे पतला छिलका हाथ
में रह गया और अब ईश्वर का भी विश्वास नहीं। कटाक्ष अपनी हद से गुजर जाता है जब
शिरोडकर जी कहते हैं पूरा पैसा इलाज में लग गया। विश्वास करो, यही
सच्ची मृत्यु है।
मामला
वैश्विक सभ्यता और कृत्रिम बुद्धिमत्ता के बीच के संवाद का है जहाँ असंवाद ने घर
बनाया है। मानवता की छेनी की धार भोथरा हो गई है और लेखक विश्वास की कब्र पर
अन्वेषण की धूनी रमाये हुए लिखे जा रहा है। मनुष्य और समाज की आयु बढ़ने पर आयी
मानसिक विकलांगता पर लेखक ने जिस तरह से अपनी बात रखी है वह कतई आपको चौंकाएगी और
सोचने पर मजबूर कर देगी कि सच में आंख की नमी का कम होना मनुष्यता की कमी के
समानुपातिक है कि आंख का पानी अपने स्त्रोत के साथ गायब कैसे हो रहा है। क्या यह
सब उसी कृत्रिम बुद्धिमत्ता के आनुपातिक गड़बड़ी की देन है?
जीभी
से शुरू हुई कहानी को बदजुबानी से जोड़ते हुए उसे ख़ुशी की तरह वापस ढूँढने की
यात्रा, या यों कहें ज़िंदगी को ऐसी कई छोटी, पर, ज़रूरी
वस्तुओं का हमारे जीवन से यूँ ही चुपके से गुम होने की दास्तान है। कुछ स्मृतियों
का खेल भी है यहाँ, जहाँ समाप्त लिख जाने
के बाद भी ज़ेहन में कौंधती हैं, समाप्त का कहीं
नामोनिशान नहीं ! दृश्य का सिर्फ़ जादू नहीं कुजादू भी होता है। कुमार अम्बुज की
इन कहानियों में एक बात साफ़ है कि आप कुछ ऐसे कोने में जाएँगे जहाँ आप असल में
जाते हैं पर,
अपनी नज़र कहीं और रखकर। अम्बुज आपकी बंद दृष्टि को खोलकर उस स्याह
अंधेरे को दिखाते हैं, प्रकाश की किरण
डालते हैं फिर बहुत कुछ जो, नींद में दबा
पड़ा था, अकुलाता हुआ भागता है जैसे कोई छछूंदर या चूहा
बिलबिला कर भागा हो। आप उस बिलबिलाने की सत्यता से वाक़िफ़ होते हैं जो अभी-अभी
घटा है आपके सामने।
कहानियों
में लेखनी का चातुर्य हैं जो विट को बहुत दूर नेपथ्य से धीमे-धीमे लाता है और फिर
छुरी की तरह खुलकर कटाक्ष की चौंध में बदल जाता है। यही पक्ष इन कहानियों को एक
अलग श्रेणी में खड़ा करता है। ड्राइविंग का डर संस्मरण की याद आ गयी यहाँ, जहाँ
ड्राइवर की कितनी सारी कठिनाइयों का ब्योरा क्रमबद्ध है। ये सारी घटनाएँ आम
ज़िंदगी से उठाई गई हैं और मनुष्य और मनुष्यता की ढलान के अपने संस्मरण की दास्तान
बन गई हैं। यह दास्तान अचानक तरबूज और मटमैले हेलमेट में,
फटे
सिर में अंतर भूल जाती है। पढ़ते हुए भीतर एक धमाका होता है और चैतन्य में शून्यता
छा जाती है। ऐसे किस्से, जो कि हज़ारों
की संख्याओं में घटनाओं की शक्ल लिए फिर रहे हैं,
उसे
लेखनी का जामा पहनाने में लेखक को कितनी मानसिक यातनाओं से गुजरना पड़ा होगा, सच
सोचता हूँ तो सोचने के लायक़ नहीं बचता कुछ देर के किए किताब बंद कर देता हूँ।
खौले अनुभव को ठंडा करने का इंतज़ार करना होगा नहीं तो दुःख दूध की तरह उफन पड़ेगा।
चौराहों
पर लगायी गई मूर्तियों के सहारे लेखक ने कटाक्ष का सुर और तेज रखा है कि कैसे
दुर्घटनाओं में इनका हाथ है और अहिंसा, धर्म का पालन
करने का संदेश देने वाले गांधी जी की मूर्तियां इस जगत में क्या से क्या कर रही
हैं।
काल-कवलित
की कथाएँ झिर-झिर कर सुनाया जा रहा है और हम शाल्मली,
नीम
और बकायन के पेड़ गिने जा रहे हैं, कुछ समय के बाद
दिमाग़ चलना बंद। अमानत में ख़यानत वाली बात महसूस होगी,
सब
कुछ लुट गया हो जैसे। निष्कर्षात्मक बातें और उनकी भनक भूल आप सिर्फ़ घटनाओं के
सार में खोये रहेंगे जो,
असल में बहुत मार्मिक हैं बस इसकी कहन अलग है नेपथ्य के सिटी की
तरह।
अभी
देवी प्रसाद जी की अन्य कहानियों से गुजर रहा था,
कुछ
दिन पहले वहाँ भी ऋत्विक घटक की फ़िल्म का घटाटोप बिछा था और यहाँ भी कुमार अम्बुज
उन्हें यूँ ही याद कर रहे हैं। कवियों, रचनाकारों की
दुनिया कहाँ कैसे टकराती है यह आश्चर्य की बात है जिसकी ऊष्मा हम जैसे पाठक तक
पहुँचती है, अपने-अपने आकाश को लिए।
देखते-देखते किताब सपनों के विभिन्न पहलुओं पर अपनी बात रखना शुरू कर देती है। सपनों की व्याकुलता, झिंझोड़, झूठ बोलना सीखना, अभिनय, अनर्गल बात करना। ऐसा लिखते-लिखते अंत में लिखते हैं - “अब पूरी दुनिया एक ऐसा सुंदर स्वप्न है, जो संसार को रहने लायक़ बनाता है। तुम एक सुंदर सपने से बनी हो जिसमें मैं रहता हूँ। यह स्वप्न अविजित किला है। यहाँ रहते हुए तुम भी अविजित हो।” किताब जीवन को नये रूप से देखने के सपने को जगा देती है और अब मैं खुली आँखों से सपने देख रहा हूँ...
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