राकेश श्रीमाल की किताब 'मिट्टी की तरह मिट्टी' पर यतीश कुमार की समीक्षा
एक उम्दा कलाकार और कला मीमांसक की गुफ़्तगू, यक़ीनन
कुछ नए रूप लिए होगी ऐसा ही सोच रहा था इस
किताब को चुनते वक़्त। पढ़ने के बाद लगा जिस गहनता और खुलेपन में यह संवाद हुआ है उसकी कल्पना भी मैं नहीं कर पाया था। इस संवाद में जीवन
दर्शन कूट-कूट कर भरा हुआ है।
जैसे-जैसे पढ़ता गया कला के मर्म परत दर परत अपनी तहें खोलती गईं। मेरी व्यक्तिगत जानकारी शिल्प-कला या चित्र-कला दोनों में बहुत ही सीमित रही है। अगर यह किताब नहीं पढ़ता तो इतने सारे अनकहे बारीकियों को कभी नहीं जान पाता, नहीं जान पाता कि छाया, अवकाश, घटाकाश, महाकाश, रंगों के परतों और उनके बीच के तहों का महत्व। ऐसा संवाद मैंने सच मानिए पहले कभी नहीं पढ़ा।
मिट्टी बचपन की तरह खाली स्लेट है, जैसा
बोओगे वैसा पाओगे। मिट्टी और आटे की लोच बचपन की सोच में घुल जाए तो कृति को कुछ अलग ही आकृति में ढलना होता है।
हर आकार की अपनी खुशबू होती है। जरूरी, बस यह है कि सपनों में आकृति
का वरण हो। आर्ट गैलरी उसे पहली नज़र में ही स्वप्नलोक-सी लगी, फिर क्या वो खुले आकाश में
ताउम्र विचरता रहा। मिट्टी उसके लिए कला का एक स्थायी भाव है। यह वो कोना है जहाँ
उसे सबसे ज्यादा दैविक अनुभूतियों का एहसास होता है, एक
पुरसकूँ जो पके धूप में घनी छाया बनी रही।
मन की तरह मुलायम मिट्टी में अध्यात्म प्रतिबिंबित है। इस किताब को पढ़ते हुए जितनी बातें मेरे अंतस में उतर सकीं उसे लिख रहा हूँ । सीरज कला में आकंठ डूबे हुए शिल्पकार हैं। उनकी ही बातों को संक्षेप में लिख रहा हूँ। अपनी मिट्टी, आदम खुद तैयार करता है उसे पता है कितना सोख सकता है पानी। बिल्कुल जैसे हरेक के आँख का पानी का पैमाना अलग है। आँखे और उंगलियाँ मन से गिटपिट बातें करती हैं, मिट्टी का स्पर्श उनके बीच का सेतु है।
उसने माध्यम की बाध्यता स्वीकार नहीं की और अनेकों माध्यम से अपनी कला को विस्तार
दिया। कागज़ हो या कपड़े, कला उकेरने में कहीं कमी महसूस
होने नहीं दिया। मिट्टी अपने भीतर संभ्यता, संस्कृति,
परम्परा इत्यादि को गहन किए रखती है। मिट्टी से संवाद
कीजिए तो रूप जन्म लेता है। कतरनों का एक कोलाज है जो याद दिलाने की घंटी का काम
करती है कि अभी कुछ बाकी है जिसे पूरा करना है। राकेश श्रीमाल और सीरज की बातचीत
का स्तर दार्शनिक बोध लिए है देह का मिट्टी होना और मिट्टी का देह होना एक अंतहीन
यात्रा है जिसका जिक्र कई बार हुआ है इस गुफ़्तगू में। संपूर्णता से देखना दर्शन का
आधार है, भीतर-बाहर दोनों ओर एक साथ
देखना उस दर्शन का विस्तार है।
इन दोनों की बातचीत में मुझे कई बार कृष्ण नाथ की बातें याद आती हैं। उनका दर्शन बोध यात्रा और मनन गुनन से जुड़ा हुआ है चाहे ‘स्पीति में बारिश’ हो या ‘किन्नर धर्मलोक’ या ‘कुमाऊँ’ या ‘अरुणाचल यात्रा’। चेतना का जो सफर यात्रा वृतांतों में लिखा गया है, वही मैं सीरज की बातों में साफ-साफ महसूसता हूँ। शायद ऐसी ही चमत्कारिक बातें राकेश श्रीमाल के अंतस में कहीं हस्ताक्षर कर गईं होंगी जो, इतनी सुंदर बातचीत का सिलसिला चलता रहा। यह कोई एक दिन की बात तो है नहीं, इसके लिए लगातार ऊर्जा, बातों से ही मिलती रही होगी।
कलाकार जब पूर्ण समर्पण को प्राप्त कर लेता है तो, वह कवि और कलाकार के अंतर को मिटा देता है। सृजन एकमात्र उद्देश्य बन जाता है, अनुभूतियों की गाड़ी उसकी यात्रा बन जाती है, निर्वाण उसका साध्य चरम बन जाता है। कलाकार गढ़ते हुए अपना आकाश रचता है। उसका आकाश एक अवकाश क्षेत्र भी है उसके लिए जहाँ उसका परिचय सुकून की पराकाष्ठा से होता है और जिसकी प्रतिछाया के पीछे वो यात्रा में निकल पड़ता है।
कविता और कहानी में भी वैसे ही अवकाश आते हैं, जिनमें
सृजन को पकने, गाढ़ा होने का वक़्त मिलता है।
सीरज भी अवकाश और महाकाश में एक लिंक तलाशते हैं, एक
सिरा पकड़े-पकड़े वो संपूर्णता की ओर चलते रहते हैं। संपूर्णता एक क्षणिक चरम है,
एक
दैवीक संतोष है। सृजन का तराशना वहाँ पर आते ही एक स्पार्क के साथ विराम लेता है।
सपाटता को जब उभार मिलती है तो, शायद कहीं कलाकार को भी एक उड़ान मिलती है। घटाकाश से महाकाश को प्राप्त करना एक कलाकार की अहर्निश यात्रा है, जिसके लिए उसके अंदर एक पागलपन व्याप्त रहता है, महसूसने का। सीरज ऐसे कलाकार हैं जिनका मन ललित कला अकादेमी की गढ़ी स्टूडियों में नहीं रमा और वे खुर्जा के वर्कशॉप को स्टूडियो समझते हैं। उन्होंने मुकुल शिवपुत्र की अहम बात हमेशा याद रखी कि जहाँ रहो वहीं स्टूडियो बना लो। यह अपनाने का बोध कराती है और वो भी परस्परता के साथ। जब भी आप प्रिय काम करते हैं समय को लांघ जाते हैं, समय से परे चले जाते हैं, प्रेम में ऐसा ही होता है। सृजन से प्रेम ही एक मात्र रास्ता है जो आपको उस ट्रांन्स में रखता है।
राकेश जी का एक प्रश्न बिंदु जहाँ मैं काफी देर तक ठहरा रहा वह यह है कि “आपकी कला के उस कथ्य को आप किस तरह ग्रहण करते हैं, जब वह पूर्ण होने के उपरान्त अपनी उपस्थिति या अनुपस्थिति में बहुत धीरे से शब्दहीन आपसे कुछ कहता है? क्या आप उसे सुन पाते हैं?"
यह प्रश्न एक दार्शनिक,
मर्मज्ञ,
कला
मीमांसक ही पूछ सकता है। मुझे तो लगता है सिर्फ इस प्रश्न के उत्तर की तलाश में
पूरी किताब लिखी जा सकती है। भौतिक वस्तु की तरह एकार्थ बोध लिए नहीं होती है कला।
समय दृष्टि बोध बदलता है और संपूर्णता अपना अर्थ। हर बार कुछ अलग दीखता है इनमें
चाहे चित्र हो या शिल्प।
इन संवादों में रंगों के ऊपर विशेष टिप्पणी है, रंगों की समझ कैनवस दर कैनवस परिपक्व होती है। रंगों के साथ उसकी खुशबू भी जमी रहती है, कैनवस पर। रंगों के परतों के बीच छाया पनाह लेती है, जिसे अनुभवी आँखों का इंतज़ार होता है।
जल का विरक्त हो जाना मिट्टी की पूर्णता है। विरक्तता की अपनी गति है जो कलाकार की आंतरिक दृष्टि से संचारित और संतुलित होती है। रंगों की तरलता को विलम्ब देना, सूखने से पहले उसके साथ खेलना यह सिर्फ चित्रकार या शिल्पकार के ही बस में है। सीरज को यह भी लगता है कि असंतुष्ट रहना, अपूर्ण महसूसना, असंतोष या अधूरापन ये भी जरूरी तत्व हैं ताकि सृजन का पहिया घूमता रहे। ऊर्जा का संचार एक बिंदु से दूसरी बिंदु की ओर होना, एक चित्र से दूसरे चित्र में खुद को ढालना है। यह ऊर्जा संचारित हो लय में बदल जाती है और शिल्पकार या चित्रकार को इसी लय की खुमारी होती है जिसके नशे में वह गढ़ता जाता है, बराजता जाता है।
स्मृतियाँ आधार हैं नए सृजन का। चित्रों की स्मृति सहायक होती है मुकाम तक पहुँचने में। सीरज कहते हैं - "अंतिम समय में सोचूँगा नहीं सिर्फ़ चित्र बनाऊँगा, गर चित्र बनाने की स्थिति में नहीं रहा तो अपनी उँगलियों को हवा के कैनवस पर उनकी हरकतों से चित्र पूर्ण करूँगा और उस पूर्ण चित्र या रेखांकन को मैं ही देख पाऊँगा।"
वे यह भी कहते हैं कि जीवन में तरलता रंगों से बनी रही, अवसाद ने हमेशा याद दिलाने का काम किया। काम की निरंतरता उसे दूर धकेलती है। वे सपने देखते हैं और सपनों के साथ-साथ कनखियों से यथार्थ में भी झाँकते हैं। साइकिल से विशेष प्रेम है। गाँधी में अभी और ढलना है उन्हें और प्रेम में अभी उन्हें और पिघलना है। एक अंतहीन खोज का माझी अपनी यात्रा पर है जिन्हें हम तहेदिल से शुभकामनाएँ देते हैं।
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