शिवेंद्र के उपन्यास ‘चंचला चोर’ पर यतीश कुमार की समीक्षा


उदास शब्द थोड़े से नरम
, थोड़े से गरम होते हैं। उनकी उदासी में दबी सी चिंगारियाँ होती हैं और उसकी तासीर चुभने वाली, जबकि साँसें बिल्कुल ठंडी। नेपथ्य में कुछ ऐसी कहानी बुनी हुई है और हम बस बिना रुके पढ़े जा रहे हैं। पढ़ते हुए लगता है कि लोग अलग और मसले एक, ग़ज़ब अनेकता में एकता है। कब्रिस्तान बनता जा रहा है शहर, कितने लोग ख़ुद के भीतर मरे पड़े हैं । अलग-अलग चेहरों पर व्यस्तता और जद्दोजहद की एक जैसी छाया है पर उन मुर्दों के बीच भी जो जिंदा है वह है उम्मीद, जिसके सहारे यह संसार अनवरत डेग भरे जा रहा है, उस उगते सूरज की ओर।

लगता है अपनी लेखनी में शिवेन्द्र जैसे ख़ुद से बातें करते चलते हैं। गुलाब के पंखुड़ियों सी लेखनी में उदास मुस्कान सिमटी पड़ी है और मुस्कान की ओस भी ऐसे कि कभी-कभी सिहरा के डरा जाती है। कहानी सिगरेट की तरह सुलगती है, एक-एक पन्ना एक-एक कश की तरह अपने राख छोड़ती, तलब बढ़ाती।

बड़ा दुष्कर काम है ऐसे लिखना जिसके कथ्य और शिल्प, समय में पलायन करते हुए अपनी परिभाषा ख़ुद गढ़ रहे हों। डायरी में समय रुका होता है जब चाहो जिस पन्ने को झांको उस समय में विचरण कर लो। शिवेन्द्र भी ऐसा ही विचरण कर रहे हैं, कभी चरित्रों से बातें कर रहे हैं तो कभी उनसे बातें करते हुए उन्हें हमसे रू-ब-रू करा रहे हैं।

कहानियों सी ज़िंदगी लिये चरित्र सपनों को जितना तह करना चाहते हैं वे उतना ही माँ की नायलॉन साड़ी की तरह फिसलती चली जाती है। रोशनाई की तरह फैल जाती है और अगले ही पल थाली गिरने जैसी झन्नाहट छा जाती है। ऐसा होना कहानी की मौलिकता और प्रवाह का अद्भुत सम्मिश्रित संतुलन को सिद्ध करता है। कहने के सलीक़े में सो गए बच्चे को देखने वाला सुकून है। वह बार-बार अपनी छोड़ी हुई कहानी के हिस्से को दोहराता है और फिर आपको अपने साथ चलने का आग्रह अपने तरीके से करता है। कहता है- चिड़िया बन जाओ पढ़ते हुए क्यूँकि प्रेम में सबसे सुंदर है चिड़िया बन जाना, उन्मुक्तता को गले लगाना और सारा आकाश पी जाना।

यह उपन्यास अपने कथ्य से यूँ आकर्षित करता है कि आपका मन करता है रूई के एहसास जगाने वाले जादू में बने रहो। एक सपना है और दूसरी सपने की चोर- चंचला! तीसरी तरफ़ आजी है जो लुढ़कती हुई चलती तो मटके पर है पर उसके गीत बादलों से बारिश करने को कहते रहते हैं। कहानियों का अजायबघर लिए चलती आजी ख़ुद एक पहेली है।

जैसे कहने का तरीका कहने से ज़्यादा कह जाता है वैसे ही लिखने का तरीका शब्दों से बहुत आगे के भाव दर्शा जाता है। इस उपन्यास में ऐसा कई बार हुआ है जहाँ लेखक की शैली आपके मन को एक उड़ान दे जाती है। जैसे कि एक जगह आजी के मस्से पर उगे बाल को बुझे दूब की उपमा दी गई है तो कहीं पर एकबारगी लगेगा अपनी पूरी स्वतंत्रता के साथ दीवार में खिड़की रहती थी का फ़ैंटेसी यहाँ उग आया है । सपने और याद्दाश्त आपस में एकमय झिलमिला रहे होते हैं । पढ़ते हुए कभी समय की नदी में गोता लगाने जैसा लगता है तो कभी बारी-बारी से सपने या स्मृतियाँ हाथ आती हैं। इसी सिलसिले में एक ऐसा भी समय आता है जब समय, समय की ही चाबी बन जाता है सपनों और स्मृतियों को बीनने के दरवाजे खोलता चला जाता है।

एक जगह माँ ताखे से निकालकर एक पुरानी किताब सखी मतलब चंचला को देती है कहती है इसे पढ़ लो । यह किताब माँ गौने के समय से अपने पास रखी हुई है। इस छोटे से वाकये ने अशिक्षा और शिक्षा के बीच स्त्री और पुरुष के बीच की प्राथमिकता का कितना बड़ा विमर्श छेड़ दिया है। कहानी के भीतर कहा गया क़िस्सा कहता है-`चिड़िया के पास लोहा काटने के लिए एक तिनका होता है’।

अब सपना और स्मृति का घालमेल भटकने लगा है और दिन दोपहरी वाली धूप और समय की छाया के बीच घट-बढ़ रहा है। किरदार का यह स्वरूप गढ़ते समय लेखक के मन पर कितने कोड़े बरसे होंगे। कराहट उछल-उछल कर शब्दों के तीर से मिल रही हैं, वो भी नुकीली ताकि किसी और को आहत कर सके। पढ़ते हुए एक मनोभाव उत्पन्न होता है जैसे हँसी भय को देख रही है और नायक ख़ुद को देख रहा है। बेफिक्री और खौफ के बीच के सूत्र को ढूँढने निकला लेखक सपनों और यथार्थ माने  असली ज़िंदगी को रह-रह कर बारी-बारी से जीने-रचने लगता है। समय अब भी उस पंक्ति की बगल में परेशान खड़ा है जहाँ लिखा है पता नहीं क्यों लोग ये चाहते हैं कि मुझे महीना आए , जबकि मैं एक लड़का हूँ’।

कबड्डी जैसे खेल के पीछे के दर्शन को इस किताब में छिपे भाव से समझा जा सकता है । एक मरता है तो दूजा ज़िंदा हो जाता है यानी किसी को जिंदा करने के लिए किसी को मारना पड़ता हैं। इसी का सकारात्मक भाव यह है कि क़ुर्बानियाँ व्यर्थ नहीं जाती।

देशज शब्दों का जादू बिखेरते प्रयोग इस किताब की आत्मा का प्रकाश है। अदहन जैसे खदबदाते विचार दाल में टिकोरी वाली खट्टी मिठास लिए कहानी में उभर आ जाते हैं। एक जगह और ठहरा जहाँ लिखा था आदमी पत्थर पर नहीं, उम्मीद पर अपना माथा फोड़ता है’।

दुआरे जाना और निपटना, दाल का बुड़बुड़ाना, चुरना और फिर माँ का बटुई का मुँह ढक देना जैसे शब्द संयोजन का देशज प्रयोग चटपटे स्वाद की तरह आता है। पढ़ते हुए लगता है जैसे उफन और फफ़न ( फफ़ाया) मन के भीतर भी हो रहा हो। जब बाबा डीटू से कहते हैं- पक्षी भी हमारी ही बोली बोलते हैं। अब हम उनकी बात समझ नहीं पाते क्योंकि हमने अपनी भाषा बदल ली है’। दर्शन और ज्ञान का ऐसा अद्भुत संतुलन लिए पंक्ति कौतूहल जगाने के साथ उत्सुकता बढ़ाती चली जाती है। आप बस पंक्ति दर पंक्ति अपने कदम रखते जाते हैं जैसे किसी आगे गए महात्मा के पदचिह्न दिख रहे हों और हम बिना व्यर्थ दिमाग लगाये पूरी आशक्ति के साथ ग्रहण वाले समर्पण भाव लिए चले जा रहे हैं।

सुंदर कल्पनाशीलता में मख़मली रचना सम्मोहन अभिन्न हिस्सा होता है ! इसे पढ़ते हुए यह सम्मोहन कई बार जागृत अवस्था में मिलेगी। उस बरगद पेड़ की पत्तियों में बैठे और लेटे पूर्वजों को अपनी लेखनी में समेटते समय लेखक कल्पना कल्प की छलाँगे मारता है और उसकी कहानियों को सुनते हुए पूर्वज देवता जब करवट लेते हैं तो पत्तियाँ डोलती हैं । इसे पढ़ते हुए आप भी लेखक की असीम कल्पना में खोने लगेंगे, डोलने लगेंगे।

वहीं जब आगे बाबा कहते हैं- कुछ लोग कल्पना में जीते हैं, कुछ यथार्थ में पर तुम संवेदना में जीते हो। संवेदना की दुनिया में कुछ भी निर्जीव नहीं होता। इन पंक्तियों से गुजरते हुए लगता है दर्शन के कितने पहलू ऐसे संवादों से निकल रहे हैं। सार्थक लेखनी के मायने भी शायद यही हैं कि जितनी बार आप उपन्यास पढ़ें, ज़िंदगी की कुछ सीख मिलती जाए और ऐसा इस उपन्यास में बारहा होता है।

एक जगह कुएँ में एक चाकू फेंकने जैसी सामान्य घटना को बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति में बदल दिया गया लिखा है। एक बुडूक के साथ कुआँ उसे गटक गया। डीटू जब सखी से कहता है तुम मुझसे शादी कर लो तब माँ तुमको नहीं भगा पाएगी और फिर जिस मासूमियत से वे दोनों शादी करने के जुगाड़ ढूँढते हैं और इससे भी ज़्यादा माँ की डेंगायी सूतने के तरीक़े की व्याख्या आपको अपने बचपन में ले जाएगी। इन्हीं व्याख्याओं के बीच शिवेन्द्र पट्टीदार’ शब्द का प्रयोग व्यवस्था व जातीय समीकरण समझाने के लिए इतने हौले (स्मार्टली) से करते हैं जिसकी गूँज थोड़ा रुक कर आती है। ऐसे जैसे किसी ने पीछे से हाँक लगायी हो कि भैया इसको भी ले लो इसे क्यों छोड़ दिया ।

रात डभक रही है या मन, ज़िंदगी को नकेल की तरह महसूस किया एक किरदार ने और उस दिन बची हुई शराब को बची हुई साँसे समझा और पी गया। फिर सवेरे का मतलब अंत समझ बैठा। अंधेरा उजाले में घुलने लगा और साँझ हो गई। कहानी में रह-रह कर मन के भीतर का मन बातें करने लगता है और पन्ने पलटते चले जाते हैं।

टोकरी भर जाड़ा और बोरसी भर आँच के साथ रोने नहीं बल्कि हल्का होने के लिये भींचने का दृश्य किसी को भी हिला सकता है । इस क़िस्से में प्रेम का छिलका काला है या जामुन के गिरने भर का छोड़ा दाग, दर्शन के झूले में झुलाती अबूझ पहेली की तरह है। कहानी के पन्नों से गुजरते हुए एक बादल को पार करते ही दूसरा बादल घर कर ले रहा है। अतीत से भविष्य में छलाँगते हुए वर्तमान एक उलझी लट बना मिल रहा है।

आजी का किरदार अपने आप में अजूबा है। किरदार जिसके पास संतुष्टि का कवच और ग़ज़ब की निश्चिंतता है। जिसे दुनिया की सारी घनघोर समस्याओं के बीच भी नींद आती है। बिना दुःख, बिना किसी सवाल के भी ज़िंदगी को बस ज़िंदगी की तरह जीने का हुनर भी। इस उपन्यास में एक-एक किरदार से कितना कुछ सीखने को है। परबब्बा लिखा सुनकर अपना पुराना संयुक्त परिवार याद आ गया। सनीचरा बाबा का किरदार जैसे धर्म की पोशाक पहने पाश, जैसे कबीर की बोली गाता मौला, एक शांत पड़ा बिगुल जिसकी इच्छा है उसकी आवाज़ सबके सोचने का मंत्र फूंके।

कभी-कभी गद्य में छुपा गीत सुनाई पड़ता है पर ऐसी लेखनी कि संगीत बज उठे विरल है। विनोद कुमार शुक्ल का गद्य लें या कुमार अम्बुज की लिखी थलचर या फिर रणेन्द्र का गूँगी रुलाई का कोरस’, इन किताबों की लेखनी में एक धुन है! इस किताब में भी ठीक वैसी ही धुन रची है शैलेंद्र ने। जब आप पढ़ेंगे हम बोलते हैं मगर वो कौन है जो हमारे भीतर से बोलता है? हम देखते हैं मगर वो कौन है जो हमारे भीतर से देखता है? मैं चुप था मगर वो कौन है जो हमारे भीतर से चुप हो गया था।

एक और बात ख़ास है- पूरे उपन्यास में निर्जीव को सजीव की तरह दिखाया गया है। जैसे सुबह से स्थिर पानी पहली बार हँसा, बूढ़ा पीपल जवाब देता है, पत्तियाँ खिलखिलाती और लरजती हैं, कुआँ कहता है सूरज से कि झांकने के लिए तुम्हें भी सिर ऊपर चढ़ना होगा, पानी की भी चोर नज़र है और सूरज भी पराठा अचार खाता है। चाँद डपट देता है और तारे घर लौटने की सलाह देते नज़र आयेंगे। पढ़ते हुए आप बरबस मुस्कुरा उठेंगे।

एकाएक इस किताब को पढ़ते हुए लगा यह दीवार में एक खिड़की रहती थी से कितने पाकिस्तान में बदल रहा है और देखते-देखते यह सच लगने लगा और लेखक समय की भाषा अदीब की तरह गढ़ने लगा। संसार भर की स्त्रियों की स्थिति का अवलोकन करते हुए भूत और वर्तमान के बीच टहलने लगा।

आर्यों के स्त्रियों की स्वतंत्रता के सामने हिंदुओं का रखा अग्निपरीक्षा का सूत्र इस उपन्यास में बहुत चुपके से अपनी पहल करता है। आलू- गोभी बनाती सदियों से ये कब की ख़ुद भुन जाती हैं उन्हें पता नहीं चलता। विषय स्वान का पंख बन डैना फैला रहा है स्त्री विमर्श’ और सखी सनम के बारे में जानने के बाद भी प्रेम का अंक भरती है, अपने मन की सुनती है। एक चिड़िया विमर्श गान करते हुए अभी-अभी फुदकी है। सखी गाँव की उन्मुक्ति समेटे एक साहसी किरदार है और सनम शहर की। दोनों किरदार का साहसी होना या उन्मुक्त होने का अंतर और बड़ा हो जाता है जब उसका रिफरेन्स पॉइंट शहर से हटकर गाँव हो जाता है। यही अंतर उन दोनों के प्रेम के तरीके में भी झलकता है।

कल्पनाओं का आधार ढूँढता लेखक कई बार हमें अपने बचपन में ले जाता है। बारिश में कूदता बचपन, पुआल में लोटता बचपन, नदी में नदी बनता बचपन, फुनगियों सा डोलता बचपन और इन सब के बीच धप्पा देता मन!

गिद्ध का बहुत सुंदर प्रयोग प्रतीक की तरह इस्तेमाल करते हुए किया गया है और एक-एक कर विलुप्त होती निर्जीव या सजीव के संदर्भों तक पहुँचने की कोशिश की गई है। इसमें पुराने रिश्ते और उनकी मिठास भी शामिल हैं। चाहे वह प्रेम दृश्य हो या विरह, दृश्य को और बेहतर समझाने के लिए रामायण की चौपाइयों का समुचित सुंदर उपयोग किया गया है।

इस कहानी का डरावना अतीत सिर के ऊपर ट्रेन गुजरने जैसा अनुभव दे जाता है। रहस्य रीढ़ की हड्डी में एक तीखा दर्द का इंजेक्शन डाल कर नम कर देता है और पाठक निस्तेज विच्छेद शून्य के टुकड़े तलाशता रहता है। एक डरावना सच जो फेविकोल की तरह गलती से हाथ से चिपक गया और अब हटाने के बाद भी पूरा एहसास लिए चिपका हुआ है, कागज़ पर मिटाए गए रबड़ के निशान की तरह!

चंचला और शिवपाल की सच्चाई जैसे-जैसे सामने आती है आप पर एक डोर और बँध जाता है । इस किताब में रहस्य अपनी मिठास लिए है जिसके भीतर कुनैन वाली कड़वी गोली है। सपने के भीतर एक सपना है जैसे नारियल के भीतर पानी या मूँगफली के भीतर नन्हे दाने। किताब पढ़ चुका हूँ अब यह समझ नहीं आ रहा छिलका ज़्यादा स्वादिष्ट है या भीतर की मिठास ।

शिवेन्द्र ने सदियों लम्बी छलांग लगाई है और हिन्दी पट्टी को इनका स्वागत पूरे खुले बाँह से करना चाहिए ताकि यह किताब हर नए पाठक तक पहुँचे और वह यह समझ पाये कि पुरस्कार से परे किताबें कैसी होती हैं।

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