उर्मिला शिरीष के उपन्यास ‘चाँद गवाह’ पर यतीश कुमार की समीक्षा


'चाँद गवाह' जीवन के अधूरेपन में प्रेम की परिपूर्णता खोजती हुई विपरीत धुरी पर घूमती स्त्री के मन के गहरे उद्वेलन की कथा है। वहाँ उस बवंडर में कुछ छपाक हुआ और विलीन हो गया, जिसके ढूँढ की कहानी है यह उपन्यास। प्रेम और प्रेम के बीच के निर्वात में दोस्ती, साहचर्य, सहानुभूति, मानवता टहलती है उसी टहल का वितान है यह उपन्यास। लेखिका ने एक ही किरदार में अहिल्या, द्रौपदी, कुंती, सत्यवती, दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी सब का देवत्व स्त्रीत्व का अंश घोल दिया है जिसे, ख़ुद को समझना है और समझ कर जीना है। हृदय का संलाप और संलिप्तता सब गुन रही हैं लेखिका और रच रही हैं वर्तमान का दर्द, स्त्री का दर्द स्त्री ही जिसे समझने में अपनी असमर्थता जता रही है। खुलकर खिलने और जीने की वकालत है यहाँ। ऐसा करते हुए चोटिल स्त्री मन के आगे ठंडे चेहरे पर गरम हथेली रख देती हैं।

मुक्ति, सशक्तिकरण, सृजनात्मकता, स्वाधीन व्यक्तित्व, आजादी, सौंदर्य और कला वैचारिक स्वतंत्रता न जाने कितनी बहसें छिड़ी हुई हैं स्त्री विमर्श के नाम पर और लेखिका इन सारे मसलों को कभी क्रमशः तो कभी एक साथ उकेर रही हैं। यह किताब निजता को बचाए रखने का आह्वान भी करती है ।

उपन्यास में रह-रह कर कुछ नये और देशज शब्दों के प्रयोग दिखते हैं जिनका समुचित उपयोग कथ्य के प्रभाव को बढ़ा रहा होता है। मसलन दिल कलथ रहा है, उदकती आवाज़, बिजली की तरह तड़क रही है जैसी पंक्तियाँ आपको मिलती रहेंगी। आगे कुछ पंक्तियाँ चौंकाने वाली मिलती हैं जैसे एक जगह लिखा है “ वह फिर उनके कान में काँच तोड़ रही थी”। अब काँच घोलने की बात सामान्यतः हम देखते हैं उर्मिला शिरीष काँच तोड़ने की बात लिखकर अपने इरादे और साफ़ कर देती हैं। यह स्त्री की स्वायत्तता की लड़ाई है जहाँ सबसे बड़ा रोड़ा स्त्री ही है।

लेखिका का मन एक कवि का है और इसलिए वह गद्य और पद्य के बीच टहलती हैं। जब ज़्यादा नाज़ुक बात कम शब्दों में व्यक्त करना होता है वह तुरंत कविता की शरण में चली जाती हैं और रचती हैं-
चक्की में पड़े दानों की तरह पिसती रही,
लोग सोचते रहे कि
चक्की गा रही है औरतों के गीत।

गहरे कुएं में खाली मटकी की तरह
डुबडुबाती रही,
लोग समझते रहे कि
मटकी में पानी भरा है

आसमान में चिड़िया की तरह भटकती रही
लोग समझते रहे कि मैं
उड़ान भर रही हूँ

यह खेल चलता रहा
चलता ही रहा 

उम्र बीत गई
सदियाँ बीत गईं
लोग समझते रहे
कि मैंने पूरी एक उम्र को जी लिया है
यह भ्रम अब जीवन है हमारा

उपन्यास में कविता का आना-जाना पूरी उपयुक्तता के साथ लगा रहता है और रोचकता बनाए रखता है। यह शैली सामान्यतः पढ़ने को नहीं मिलती। मोहक पंक्तियाँ मिठास बढ़ाने का काम करती हैं जैसे “वह हँसी … तो हँसी परिंदों पर सवार होकर उड़ रही थी”। “ दोनों की समवेत हँसी परिन्दों के कलरव में एकाकार हो गयी”। दो नदियाँ आपस में मिल गयीं। उसे लगा वह लहरों द्वारा आसमान में उछाली जा रही हो।

उपन्यास रिश्तों में स्वतंत्रता स्वायत्ता के साथ-साथ प्रकृति और पर्यावरण को बचाने की बात भी करता है। बहुत चुपके से कहानी के नेपथ्य में पेड़ लगाने, जानवरों की सेवा, छोटे-छोटे पोखर बनाने जैसी बातें आपको पढ़ने को मिलेंगी। लेखिका का संदेश उनकी पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता को दर्शाता है। एक व्यापक संतुलित विश्व और सुंदर पृथ्वी की परिकल्पना है इस उपन्यास में।

रिश्ते उलझ कर सुलझ सकते हैं। बदलाव शाश्वत है और वापसी सबसे सुंदर क्रिया। उपन्यास का अंत बेहद पसंद आया। रिश्तों को एक नयी ऊँचाई मिली इस किताब में। ऐसे लोग ऐसे पुरुष ऐसी महिला हमारे बीच हैं और हम उन्हें अक्सर ग़लत समझ बैठने की भूल कर बैठते हैं। पढ़ते हुए मैं ख़ुद की विस्मृति में झांकने निकल पड़ा और उन्हें वापस आयी स्मृतियों के हवाले कर आया।

उर्मिला जी को ढेर सारी बधाइयाँ रचते रहिए हम पढ़ते रहेंगे। दो बात, पहली  पैराग्राफ यूँ लिखे हैं शुरुआत में कि उन्हें एक दूसरे से जोड़ने में थोड़ी परेशानी हुई। दूसरी एक दो जगह फ़ॉर्मेटिंग में एक-दो शब्द आधे रह गए हैं उन्हें दूसरे संस्करण में सुधार लेने की ज़रूरत है।

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