प्रतिष्ठित कहानीकार मनोज कुमार पांडेय के कहानी संग्रह ‘पानी’ पर यतीश कुमार की समीक्षा


कहानी पर अपनी बात कहने से पहले यह कहना चाहूँगा कि इस कहानी संग्रह में मनोज जी की जो तस्वीर है बहुत मोहक है, निश्छल है। लगभग सफ़ेद खाली पन्ना है, जो कई रंगों में नहाने को बेताब दिख रहा है और इसी बेताबी की तड़प में शायद लिखी गई होंगी ये कहानियाँ, जिनसे रू-ब-रू होने जा रहा हूँ।

वैयक्तिकता से सामूहिकता, आपबीती से पर-बीती जैसी लिखी गई कहानियों का गुच्छा मिला यहाँ, जहाँ लिखा है “हम मौत को तड़ी मारते हैं और ज़िंदगी के इलाक़े में निकल जाते हैं।” बिछलाने वाली कहानियाँ हैं, जबकि संवाद रोकने वाले। एक जगह लिखा है :- “डालें ऐसी लग रही थीं जैसे पेड़ के हाथों की उँगलियाँ काट ली गयी हों।” `जींस’ कहानी पढ़कर यही लगा कि एक अलग क्राफ़्ट है मनोज का। ऐसा ही समानांतर क्राफ्ट शिवेंद्र के 'चंचला चोर' को पढ़ते हुए दिखा था। यहाँ क्राफ्ट कहने से मेरा तत्पर्य दुःख और मर्म की थिगली की परतें रचने और फिर उन्हें उघाड़ने से है। 'जींस' कहानी में रूपकों की झड़ी है। नीम का पेड़, जींस ख़ुद, वो बड़ा आइना, या वह काला गड्ढा, जिसमें अपनी ननद को अंतिम नींद में सुला आती है दादी या उसी गढ्ढे के आस-पास सोयी हैं दादी की वो पाँच बच्चियाँ। इस कहानी के नेपथ्य में मनोविज्ञान का खेल रचा गया है। दर्द की एक लहर कितनी लहरों को जन्म देती है और खोजने चलो तो जुड़े होने के बावजूद किसी भी लहर का सिरा एक दूसरे से जुड़ा हुआ नहीं दिखता।

कहानी में महत्व होता है कहन का, बुनाई का, कसावट का और इससे इतर अंत का। मनोज इन सब में माहिर हैं। हाँ इस कहानी की एक बात अनसुलझी रह गई मेरे लिये कि क्यों पिता, दादी की सब बातें मानते थे। शायद ये भी हो कि दादी के दर्द को हल्का करने का नुस्ख़ा यही रह गया था उनके पास। कहानी मार्मिकता से सराबोर होती हुई अंत में सकारात्मकता को गले लगाती है।

आगे लिखी `हँसो लड़की’ कहानी बहुत मुलायम तरीक़े से शुरू की गई है। सब कुछ ऐसे चल रहा होता है कि यक़ीन ही नहीं होता कि कहानी की साइकिल इतनी स्मूथ कैसे चल रही है। बतौर पाठक मन में एक संशय बना रहा कि अब आगे क्या होगा। क्या सपाट सड़क के आगे कोई गड्ढा आने वाला है। इस कहानी का ट्रीटमेंट 'जींस' कहानी से बिल्कुल अलग ही है। लगता रहा कि अरे यह तो अपने ही किसी पड़ोसी की कहानी है, पर अंत ने साबित कर दिया कि कहानी में सिर्फ़ गढ्ढे ही नहीं होते, सीधी उतरती खाई भी होती है, जिसका अंदाज़ा, पढ़ते हुए, संशय होते हुए भी नहीं हो पा रहा था। अंत नश्तर लिए सीधे खचाक-सा जैसे सीने में उतर गया हो! मनोज का कथ्य-शिल्प कहानी को बहुत अलग ट्रीटमेंट देने में पूरी तरह सफल रहा है।

अच्छी बात यह है कि इन कहानियों में कोई दोहराव नहीं है, सिवाय दर्द के,पछतावे के, झटके में हुए अंत के। `पुरोहित जिसने मछलियाँ पालीं’ कहानी भी कई तहों से होती हुई गुजरती है। पाखंड, प्रेम, स्वार्थ, घृणा, वीभत्सता कुछ भी नहीं छूटा इस कहानी में। पुरुष को किस तरह के यौन उत्पीड़न से गुजरना पड़ता है यह बिना बहुत आवाज़-शोर के रचा गया है यहाँ, पर मनोज के कहन की सबसे विशेष बात है अंत। हर कहानी का अंत एक चाँटे की तरह झन्नाटेदार है।

मनोज सच्चे क़िस्सागो हैं। कहानियों के सारे एलिमेंट की पकड़ है उनमें। आरम्भ, आरोह, चरम स्थिति एवं अवरोह चारों तत्व उनकी कहानियों में उचित मात्रा में विद्यमान रहते हैं, जो उन्हें पूर्णता के क़रीब लाते हैं, पर सबसे ख़ूबसूरती से वो कहानी का अंत करते हैं, जो कि स्वयं में एक कला है।

`बूढ़ा जो शायद कभी था ही नहीं’ कहानी को पढ़ते हुए अफ़वाह फ़िल्म को याद कर रहा था। यहाँ कहानी से ज़्यादा संदेश दिखा। कथ्य थोड़ा अलग है, बाक़ी कहानियों की तुलना में। इसी के बाद कहानी `हँसी’ में मैं पूरी तरह उतर नहीं पाया। शायद यह मेरे कहानी में उतरने की पात्रता की कमी भी हो सकती है, पर मुझे यहाँ मोनोलॉग दिखा और मैं बहुत देर तक संवाद नहीं कर पाया। अभी मैं कुछ समझ पाता कि 'हँसी' कहानी को कितना समझ पाया हूँ, या मेरी समझ से कैसे परे रही यह कहानी, कि ख़ुद को `पानी’ कहानी में डूबता पाया। पहली पंक्ति से फँस गया, कहानी के चंगुल में, जहाँ छत पर पाँच दिनों से लोग किसी करिश्मे का इंतज़ार कर रहे होते हैं। वे असल में पानी के उतरने का इंतज़ार कर रहे हैं या सूरज के सही उदय का, पता नहीं ! पर कहानी में वे पेड़ को लकड़ी बनते हुए देखे जा रहे हैं। 'बकुलाही' नदी का ज़िक्र आते ही मुझे अपनी 'क्यूल' नदी की याद आ गई। वही बौखलाहट वही बेचैनी वही लड़कपन। आग बबूला होने का कोई समय नहीं। नदी न हुई, मनमौजी मन हुआ।

यह कहानी बहुत बहुत ज़रूरी, मूल आधार की बातें करती है। मसलन धरती और मनुष्य के बीच के समझौते की। लेखक कहता है, धरती को सबसे कम भरोसा मनुष्य पर है। वो जब चाहे उसके सीने में लोहा उतार देता है, बोरवेल बना देता है। ऐसा पढ़ते हुए मुझे एहसास हुआ कि बोरवेल खींचता है पानी धरती से, जैसे खून खींचते हैं शरीर से। मनोज कहानी बुनते समय भाषा पर अपनी पैनी नज़र रखते हैं कि ईर्ष्या होती है ऐसी लेखनी से। मसलन गाँव की बात हो रही है तो देशज शब्दों का भरपूर और उपयुक्त प्रयोग मन मोह लेता है। खेती की बात हो रही हो तो वो सारे वैसे शब्द जिस बात में गाँव और उसका वातावरण पूरी तरह पाठक के सामने उभरकर आए जैसे बेहन, रेहन,पाटना, घाघ भड्डरी, कायदन, पुर और मोट, सग्गड़, ढोंका, कटिया, छुहियाँ और तमाम ऐसे शब्द, जिनके प्रयोग आपको बहुत कुछ सीखा जाते हैं।

अभी कुछ दिन पहले ही अनुपम मिश्र की 'अभी भी खरे हैं तालाब’ पढ़ी थी जहाँ सदियों से चली आती तालाब बनाने की सुंदर परंपरा, सामूहिक अभियान अपने पूरे इतिहास के साथ विस्तार से दर्ज है और क्या ही संयोग है कि इस कहानी में तालाब को देखते-देखते उजड़ने के परिणाम देख रहा हूँ। बाढ़ के आने से पहले पलायन आता है जिसे जमुना के माध्यम से समझाने की कोशिश मनोज ने की है। पलायन होना गाँव को मसान बनाने के लिए उठाया पहला कदम भी है। यह कहानी समूहीकरण के विरुद्ध बहुरूपिये विकास के दोहरे मार की कहानी है। मगन रूपी बहुरूपिया, जो कहता है पंप तो सबके लिए है यह उसके स्वार्थ से भभकी आग की कहानी है। यह मिठास भरे स्वभाव में चिड़चिड़ापन के फदकने की कहानी है, समाज में बढ़ते असंतुलन द्वारा शरीर और ज़मीन सब जगह की नमी चुराने की कहानी है, प्रकृति के साथ हुए धोखे में आग अपनी प्रकृति खो दे, यह ऐसी कहानी भी है। यह सामूहिक प्रेम का सामूहिक डर में बदल जाने की कहानी है और इन सबमें फिर भी अंत में बचती है जिजीविषा, बचता है विश्वास,आपसी प्यार और सब एक स्वर, एक कंठ से कह उठते हैं कि “हम जो बचे हैं इसे हमारा सामूहिक बयान माना जाये।”

मनोज कुमार पांडेय को बहुत-बहुत शुभकामनाएँ कि आप रचते रहिए विषय विशिष्ट कहानियाँ, संदेशपुरक कहानियाँ और हम पढ़ते रहें, सीखते रहें, डूबते रहें आप के लिखे में।

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