लेखक-पत्रकार गीताश्री के उपन्यास ‘सामा चकवा’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

 


इस उपन्यास में शुरू से केंद्र में न कृष्ण हैं न सामा, यहाँ केंद्र बिंदु है वन। जामवंती का वन, सामा का वन। सारी कहानी बहुत ही रोचकता से बुनी गई है पर हर बार लौटकर आती है, वन संरक्षण और प्राकृतिक संतुलन पर। भाषा और कथ्य में गीता श्री ने बहुत संतुलन बनाये रखा है और दोनों बिल्कुल कथा के अनुसार हैं। मसलन एक जगह लिखा है-

पत्तों पर बारिश की बूँदे नहीं चिड़िया के आँसू हैं।”

इसके आगे भी-
जंगल जलाने के लिए राक्षस पैदा किए जा सकते हैं, जंगल उगाने के लिए ताक़तें नहीं खोजी जा सकती ।

या फिर
पेड़ काटना मनुष्य हत्या के समान है।”

रह-रह कर संवाद में संदेश छिपा है, जिसे पढ़ते समय आप महसूस करेंगे और आपको लगेगा जैसे कोई वातावरणविद कथा बाँच रहा हो। जगह-जगह पर श्लोक का प्रयोग किया गया है, जो छोटी-छोटी कहानियों को जोड़ते हुए अंत में उपन्यास को रोचक तथ्यों से जोड़ने का काम करता है।

आखेट-अहेर को लेकर जामवंती और कृष्ण के संवाद बहुत महत्वपूर्ण हैं, जिनके केंद्र में वन जीवन की रक्षा है। अभी तक हम राधा, सत्यभामा और रुक्मणी पर केंद्रित कहानियाँ पढ़ते-सुनते आ रहे हैं, पर गीता श्री की कहानी में जामवंती का होना सुखद आश्चर्य से कम नहीं। एकमात्र कृष्ण की पत्नी, जिसने उन्हें अपनी मर्ज़ी से वरण नहीं किया था।

एक दृश्य है जहाँ सामा कृष्ण के प्रेम प्रसंगों के साक्षी कदंब के पेड़ को विस्मय से देखती है और फिर उस पेड़ को प्रणाम करती है। यहाँ भावार्थ है एक वृक्ष दस पुत्रों के समान होता है, पर जब सामा श्लोक के भावार्थ को बदलने की सोचती है तो भीतर गर्व महसूस होता है। वह सोचती है एक वृक्ष दस पुत्रियों के समान क्यों नहीं हो सकता। सागवान से सामा का लिपटना एक मौन विद्रोह की तरह है जैसा चिपको आंदोलन में था ।

एक जगह कृष्ण की मुरलियों के भिन्न नाम की चर्चा है जैसे - आनन्दिनी, सम्मोहिनी, महानंदा, आकर्षिणी इत्यादि। निधि वन, तुलसी वन सब चकित करने वाली रोचकता से भरा है। बाँसुरी की धुन पर सामा का जंगल की ओर भागने का दृश्य बहुत ख़ूबसूरती से रचा गया है। हिरणी की कुलाँचे, गौरैया की फुदकन, अल्हड़ नदी का आवेग, कोयल की कूक से होड़ करती, अँजोरिया रात में निहोरा करती सामा, कुनमुनाती सामा, धड़कते जंगल जैसी साँसे लिए सामा। सामा का चित्रण करते समय और ख़ासकर प्रेम में स्वयं को आज़ाद महसूस करते समय लेखिका, लगता है, ख़ुद को रच रही हैं।

पढ़ते हुए वर्तमान सामाजिक परिस्थिति और बदलता समाज भी देखने को मिलेगा जैसे- मथुरा के बिगड़ते हुए माहौल का वर्णन, मदिरा सेवन की आक्रामकता, गौ पालन और दुग्ध व्यवसाय में मंदी, बलराम का अत्यधिक मदिरापान, तदनुसार कृष्ण के बेटों का भी मदिरापान में लिप्त होना और फिर जंगल में विकास के नाम पर पेड़ काटना इत्यादि सब लगता है कैसे तब की नहीं अब की ही बात हो रही है।

साम्ब और कृष्ण संवाद, कृष्ण-अर्जुन संवाद की तरह प्रतीत हो होते हैं। इस खंड को भी सुंदर रचा है गीता श्री ने। हाँ एक बात खलती है कि राजा वासुदेव और माता देवकी के साथ सामा या जामवंती का कोई संवाद दृश्य नहीं दिखा। रुक्मिणी का एक बहुत सकारात्मक संतुलित रूप यहाँ प्रस्तुत किया गया है। जब कृष्ण सामा को शाप देते हैं तो रुक्मिणी अकेली उन्हें ग़लत ठहराती है और सारे सटीक बिंदुओं को कृष्ण के सामने एक अधिवक्ता की तरह रखती है।

सामा का अपनी बात आधी-अधूरी रखते हुए चिड़िया बन जाने का दृश्य बहुत मार्मिक है। राधा के प्राण त्यागने का दृश्य भी अद्भुत अलौकिक है जिसे सिर्फ़ सामा चिड़िया देख पा रही है। चकवा-चकवी के प्रेम और बिछोह की दास्तान रोचक और मार्मिक है। रात में विरह नसीब में होना यह सब कुछ नया पर रहस्यमयी सा भी प्रतीत होता है।

आगे जाकर सामा का नेतृत्व पक्षी के रूप में और फिर पक्षियों का इकट्ठा होना सामना करना और वन रक्षकों को अपनी गलती का अहसास दिलाना सब रोमांचित करने वाले पल हैं। उपन्यास कहीं पर भी अपनी पकड़ नहीं छोड़ता। लगता है जैसे मंदिर में, जिस रोचकता से पंडित जी कहानी सुनाया करते थे, वैसा ही वाचन सुर पकड़ा है गीता श्री ने, जो इस कहानी की पकड़ को बनाए रखता है।

 दो सच्चे प्रेमी जब रोते हैं तब सृष्टि काँपती है।”

चुग़लख़ोर चूड़क का अंत भी बहुत रोचक और विषय वस्तु के अनुसार है। प्रकृति न्याय करती है। इस उपन्यास में सामा-चकवा के प्रेम से इतर भाई बहन का प्रेम भी समानांतर है और इस पूरे उपन्यास का मूल स्वर भी है। प्रेम में स्वयं को पक्षी बनाने का शिव से वर माँगना और चकवा बन जाना, मुनि कुमार के रूप में प्रेम के संपूर्ण समर्पण की मिसाल है। गीता श्री को मिथिला के लोक प्रथा से निकली इस लोकगाथा को बड़े संदेश में बदलने के लिए साधुवाद व इस मूल कहानी के साथ कई समानांतर लोक कहानियों को जोड़ने के लिए बधाई।

कुल मिलाकर एक पठनीय उपन्यास, जो मिथक को आपके सामने खड़ा कर देता है। यहां प्रेम, वन संरक्षण और संवाद हीनता के दुष्परिणाम की दास्तां, अपनी उड़ान भरती मिलती है। कृष्ण लगभग एक नकारात्मक रूप लिए मिलेंगे जो संभवतः हम जैसे पाठकों के लिए बिल्कुल नया होते हुए थोड़ा आश्चर्यचकित करता है। आपके भीतर बनी हुई कृष्ण और राधा की मूरत भसकेगी। राधा का दासी रूप, कृष्ण के रूप को और स्याह कर देता है। नारद की जैसी छवि जगत्प्रसिद्ध है, इस किताब में भी वैसी ही है। यहाँ बलराम की अब तक की छवि भी खण्डित होती है । ऐसी छवियाँ जो बचपन से हम सब के मन में बसी हैं, उन्हें उनके साँचे से बाहर यूँ लेकर आने का साहस गीता श्री को विशेष बधाई का पात्र बनाता है।

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