न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से प्रकाशित एवं वरिष्ठ कवि हरगोविंद पुरी पर केंद्रित काव्य-संग्रह ‘चयनित कविताएँ’ पर यतीश कुमार की समीक्षा
कवि को चरवाहे का टिटकारना
याद है –
बुद्ध की बातों में पहली
बात बच्चों से सजगता की करने वाले हरगोविंद एक सजग कवि हैं। मूर्त और अमूर्त के
मानवीकरण पर विश्वास रखता यह कवि सजगता को न केवल समझता है बल्कि स्वयं यह स्वीकार
भी करता है कि कविता में बेहतर मनुष्य बनना निहित है।
कवि इसी मनुष्यत्व में
जिजीविषा के निहितार्थ को अपनी कविता में उकेरता है और लिखता है “वे ज़िंदा रहे
वर्षों तक कुचली जाने वाली घास की तरह” और इसी पंक्ति का विस्तार आगे करते हुए कवि
कहता है “उनका ज़िंदा रहना बच जाना है पृथ्वी का…”
मैं चकित हो जाता हूँ जब
कवि पृथ्वी के रजस्वला होने की बात करता है, असल में यह उनके भीतर के किसान का चीत्कार है जो परिधि को
चिन्हित करने की बात करता है ताकि केंद्र में जगह बनायी जा सके। मेरा मानना है कि
कवि की यह चीख भी इस विधा में ख़ुद को उतारने का एक कारण है।
दाग तब अच्छे हैं जब वो
आत्मा पर न हो... ऐसे संदेश देने वाले कवि हरगोविंद के अनुभव का अपना एक
वितान तो अवश्य ही होगा जिसे उन्होंने शब्दों में ढाल दिया है। कवि एक तरफ पसीने
से विकार बहाने वालों को शुक्रिया कहता है तो दूसरी तरफ शहर को फिर से क़स्बों में
बदलने के सपने देखता है मानो बिगड़ते को सुधरते हुए देखना चाहता है। नरेश सक्सेना
की कविता “समुद्र पर हो रही है बारिश” की ही तरह कवि को यहाँ भी समंदर की चिंता है
उसे चिंता है नमक बचा लेने की।
कवि के किसान हृदय को
युद्ध की भी बराबर चिंता है तभी तो सैनिक के अंतिम शब्द को राष्ट्राध्यक्षों को
सुनने की गुहार करते हुए इतने सरल शब्दों से रचता है गहरी बात!
एक
बच्चा
जब
युद्ध और तबाही के देखता है दृश्य
और
पूछता है
यह आपस
में बात क्यों नहीं करते
मैंने
कहा
बात
नहीं करते
इसीलिए
तो होते हैं युद्ध
ऐसे मासूम सवालों के सरलतम जवाबों से एक कवि विश्व संदेश दे रहा है ।
जैसे दाग अच्छे हैं वैसे
ज़िद भी!
शब्द के मायने कवि ही पलट
सकता है। जैसे आइना उलटा पड़ा हो उसे सीधा कर रहा हो । जिसे आइना देखने की आदत
नहीं अब उसे उकसा रहा हो कि देखो ख़ुद को और बेहतर मनुष्य बनो क्योंकि बेहतरी ख़ुद
के भीतर झांकने में ही है, आईना देखने में ही है।
मनुष्यता की सीख के लिए
बार बार कवि किसानों ग्राम वासियों के पास जाने का आग्रह करता हैं जो पेड़ पर
चढ़ने से पहले करते हैं नमन उनको, जो जब काम करते हैं तो सिर्फ़ कर रहे होते हैं काम। यहाँ
समर्पण की सीख नेपथ्य की गूंज में है जो कविता का मूल स्वर है इस किताब में। इसी
नेपथ्य की भाषा में रची गई कविता है ` भाषा’।
नरेन्द्र पुण्डरीक की
कविताओं में माँ और पिता पर व्यक्त संवेदना मुझे बहुत पसंद है। उन कविताओं के
समानांतर धूप का टुकड़ा यहाँ हरगोविंद की कविताओं में भी मिलेगा जब कवि बात करता
है बँटवारे की और लिखता है बँटवारे में किसी ने नहीं की/ उन कपड़ों की सुध/ जिसमें
माता पिता के/ देह की आ रही थी/ अब तक ख़ुशबू। ` पिता कविता की एक पंक्ति बस काफ़ी है
पूरी कविता का मज़मून समझाने के लिए जब लिखते हैं `एक आसमान
से ज़्यादा होता है पिता का हाथ’ । रिश्तों पर अच्छी कविताएँ यहाँ पढ़ने को मिलेगी
जहाँ जाड़ा बढ़ा रहा होगा घर में प्रेम और खिड़की खोल रही होगी जीवन में नये
रास्ते ।
इसी के साथ लौटने की
सार्थकता पर कविता है यहाँ जिसमें कुछ कुछ गिरना कविता की ध्वनि मिलेगी सिर्फ़
सकारात्मकता के हिसाब से । यही हरगोविंद की ख़ास बात है कि वे आपको किसी नकारात्मक
बोध के साथ नहीं छोड़ देते बल्कि बेहतर दुनिया बनाने के दरवाज़े खोलते हैं जिससे आपको
थोड़ी थोड़ी उजास मिलती रहे ताकि हम बेहतर मनुष्य बने और बेहतर दुनिया बनाये।
विवेक चतुर्वेदी रचते हैं
स्त्रियाँ घर लौटती हैं और हरगोविंद रचते हैं काम से लौट हुए लोग। यहाँ जेंडर से
मुक्त बातें हैं पर काम की बातें हैं । काम से लौटे आदम को उगती हुई फ़सल में
देखता है कवि । हालाँकि कविता बार बार पुरुष स्वर में बात करने लगती हैं पर अगर इस
कविता को जेंडर से पूरी तरह मुक्त कर दिया जाये तो यह और खिल उठेगी। लौटने का स्वर
लिए और भी कविता है जैसे `राम लौटे अयोध्या ‘,यहाँ भी लौटने में
बसी सकारात्मकता को दिये की तरह बाल रहे हैं हरगोविंद ।यही लौटना `खिड़की’कविता में भी शामिल है ।
हरगोविंद की कविता में
जंगल,आदिवासी,गाँव और उसकी गली,उस कोने पर आख़िरी दुकान मतलब की
इन सब को बचा लेने का स्वर है । कविताएँ इन सबकी सार्थकता की याद दिलाती रहेंगी।
एक जगह लिखते हैं छोटे मियाँ की दुकान/ जिसे सब बुला सकते हैं नाम लेकर/ बदलते
राजनीतिक परिदृश्य में भी/है सबसे ज़्यादा विश्वसनीय ।
स्त्रियों पर केंद्रित
कविताओं को पढ़ते समय कुछ सायास सा लगा जो कविता के पूर्ण संप्रेषण में विघ्न डाल
रहा है। नरेश सर के शब्दों में कहूँ तो वहाँ राग और लय की ताल थोड़ी मद्धम मिली
जबकि कवि ने हर उन कविताओं में विषय को न्याय देने की भरपूर कोशिश की है ।
`कुछ शब्द
मेरी प्रार्थना के’ कविता का अंतिम अंश जहाँ कवि लिखता है “मेरे पास भी/एक
बेज़ुबान चिड़िया है पंख लिए/ एक बाज़ झपट्टा मारता हुआ/ एक कनेर का फूल/ कुछ
बिखलती चीखें/ कुछ आवाज़ें दबी फ़ाइलों में/ कुछ दफन हँसी वही खाते में …। यह अंश
अपने आप में स्वतंत्र कविता भी है।
अक्सर हरगोविंद की कविता
में मुझे एक कविता में कई कविताओं का स्वर दिखा जैसे चीखें हैं कई जिसे कवि
बर्दाश्त नहीं कर पा रहा और उकेर दे रहा है एक साथ सातों स्वर एक साथ मिलकर फूटती
है प्रार्थना बनकर!
अंत में एक सुझाव जो कुछ
एक कविताओं में दिखने के बाद लिख रहा हूँ। कविता में भाव के दोहराव से बचना चाहिए।
अगर ऐसा हो तो ये अच्छी भावपूर्ण कविताएँ और निखरेगी और बेहतर हो जायेंगी।
शुभकामनाओं के साथ कि हरगोविंद की कविताएँ हमें यूँ ही पढ़ने को मिलती रहे और बेहतर
मनुष्य बनने की सीख देती रहे।
तुलनात्मक दृष्टि से की गई बढ़िया समीक्षा।भाई हरगोविंद पुरी और यतीश कुमार जी को बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं।
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