यतीश कुमार के संस्मरण संग्रह ‘बोरसी भर आँच’ पर लेखिका सीमा संगसार की पाठकीय टिप्पणी

 


ज़िन्दगी की आंच में इतनी तपन होती है कि इंसान ताउम्र उसमें जलता रहता है और जब वह अपने अतीत में लौटता है तो वह धीमी आंच जो सुलगना भूल गई थी, एक बार फिर से भुकभुका कर जलने लगती हैयतीश कुमार जी का अतीत का सैरबीन कुछ ऐसा ही दहका देने वाली स्मृतियां है, जिसकी आंच में एक लेखक ही नहीं हम सब तप रहे होते हैं

इस किताब को मैं न तो आत्मकथा कहूंगी और न ही संस्मरण यह एक ऐसी यात्रा है जिसके सफर पर हम जैसे न जाने कितने हमसफर हैं जो इसकी तासीर को अच्छी तरह समझते हैं। अस्सी - नब्बे के दशक का वह अंधकारमय बिहार और उससे जुड़ी यादें जो लगभग भूल ही गई थी, इस पुस्तक को पढ़ते वक्त एकबारगी नजर से कौंध गया। जातिवाद, नक्सलवाद की आग में झुलसा हुआ वह बिहार तब रहने और जीने लायक नहीं सजायाफ्ता कैदी की तरह काटने लायक था। चोरी, डकैती, अपहरण, बलात्कार, छिनतई और न जाने कौन कौन से अपराध दिन के उजाले में सीना जोड़ी कर किए जाते थे। महज इसलिए कि प्रकाश सिंह और अशोक सम्राट जैसे कुछ नाम थे जो उन दिनों ट्रेंड में थे और बाकी सब गौण थे।

मेरा बचपन भी अमूमन इसी माहौल में बीता लेकिन पापा चूंकि स्टेट बैंक में अधिकारी और माँ सरकारी स्कूल में शिक्षक थी इसलिए हम तीनों भाई बहन को बचपन से ही बोर्डिंग में रखा गया ताकि इस माहौल से बच सके। यतीश जी सही मायने में वर्ल्ड चैंपियन रहे क्योंकि उनको पूरा मैदान खाली मिला खराब मौसम और पिच पर बल्लेबाजी करने के लिए। और यह बंदा बिना किसी कृष्ण जैसे सारथी के जिन्दगी के महाभारत के एक एक चक्रव्यूह को तोड़ते चले गये।

आभाव, दुख, बैचेनी और गरीबी क्या होता है वह भूख और रोटी पर कविता लिखने से समझ नहीं आती। उसे महसूस करने के लिए चिकूआ बनना पड़ता है।

स्मृतियों की वीथियों से
एक लम्बी टेर आ रही है
चिनगारियाँ बूझ गई
पर ताप है कि कम हो नहीं रहा... 

इस आंच में तपने के लिए उस मिट्टी में लोटना पड़ता है जिसमें लोट कर इंसान हुआ जा सकता है । एक दीवार ऐसी होती है जिसे तोड़े बिना इंसान कभी उस जिन्दगी को नहीं जी सकता जिसे जीकर वह कुछ लिख सके

अगरचे लोग बाग दो चार कविता कहानी पढ़कर ही लेखक और कवि हो जाते हैं उनकी क्रांति की शुरुआत उस मिट्टी से होती है जिसमें यतीश जैसा शख्स लोट लोट कर बड़ा होता हैकाफी मर्मान्तक और दिल दहला देने वाली कोई एक या दो घटना ही नहीं पूरी दास्तान दर्ज है जिसे पढ़ते पढ़ते वह सितमगर जमाना सो गया पर दुख है कि पांव पसारे वहीं बैठ गया है।

जातिवाद के आपसी वर्चस्व में संघर्ष अकेला औजार था। ऊंची और नीची दोनों जातियां अपनी अपनी सीमा विस्तार में लगी हुई थी। सबके जूतों की माप अचानक बड़ी हो गई थी। नई लोकतांत्रिक राजनीतिक पार्टियां जातिवाद का झंडा फहरा रही थी, जिसका असर गाँव और बस्ती पर भी पड़ रहा था।

इसके साथ ही बचपन से लेकर किशोर वय तक का काफी सेंसेटिव उम्र बीत रही थी कभी न खत्म होने वाले इम्तहान के हिचकोले खाकरयतीश जी ने लिखना काफी देर से.शुरू किया लेकिन उनकी कलम की धार तो तभी से शुरू हो रही थी जब वे जिन्दगी कि उस कड़ी धूप में अपने लिए दो हाथ छांव तलाश रहे थे।

बहरहाल एक करुणामयी कवि मन जब कुछ भी लिखना चाहता है वह एक कड़वी सच्चाई होती है जिसे घोंटना सबके वश की बात नहीं हैदुख के गरल पीने वाले आदियोगी जब स्वयं कविता लिखने बैठते हैं, वहां शब्द नहीं अश्रूधारा बहती हैबोरसी भर आंच पढ़ते वक्त आपको एक साथ आंच की तपन और असीम दुख और पीड़ा की अश्रूधारा को महसूस करने से अपने आपको रोक नहीं पाऐंगे।

स्मृतियों की यह सैरबीन आपको कभी गुदगुदाएगी, कभी रुलाएगी, कभी ठहाके मारने को विवश करेगी तो कभी लेखक से गले मिलकर रोने का मन करेगाइतना आसां भी नहीं है इस दुख को गले लगाना। कहने को तो बहुत कुछ है लेकिन बहुत कुछ कहा नहीं जाता बस महसूसा जाता है

पहली बार कोई किताब पढ़कर ऐसा लग रहा है कि मानो कोई मेरे हिस्से का भी बहुत कुछ लिख गया और उसपर लिखना समीक्षा तो कतई नहीं हो सकता। ये मेरे मन के उद्गार हैं जो बस लेखक के साथ फूट जाना चाहती है किसी साझी विरासत के साथ

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