चर्चित लेखिका शैलजा पाठक की किताब ‘कमाल की औरतें’ पर यतीश कुमार की समीक्षा
इस
किताब को पढ़ने के लिए हाथ लगाया ही था कि कवि के नाम ने ही पहले पकड़ लिया और
मेरा ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया, जबकि
इस नाम से कितने सालों से वाक़िफ़ हूँ, पर ध्यान इस किताब ने दिलवाया। इसके साधारणतः दो मायने
निकलते हैं, पहाड़ों की बेटी
पार्वती और जो मुझे ज़्यादा उचित लगा वह है, नदी। स्त्री के पूरे वर्ग का प्रतिनिधित्व करने के लिए नदी
से बेहतर दूसरा कोई विकल्प नहीं।
‘कमाल की औरतें’ शीर्षक से ही लगता है, अभी कितने मन को पढ़ने जा रहा हूँ, कितने दर्द से रू-ब-रू होने जा रहा हूँ, अनेकों दर्द की जीत को समझने जा रहा हूँ। पहचानने और जानने
के बीच कुछ यक्ष प्रश्न हैं। यहाँ इन्हीं प्रश्नों का उत्तर ढूँढने की ज़िद है।
ज़िद है कूक और हूक के अंतर को समझाने की।
अपनी
सही मिट्टी की तलाश में हैं कविताएँ। हर कविता एक तीखे सवाल की तरह है, जिसके हल, आश्वासन
की शक्ल में, चित्रित करती मिलती
हैं शैलजा। अम्मा की बात जब भी करती हैं हिदायतें उसका प्रमुख स्वर बन जाती हैं।
इन हिदायतों में सहानुभूति नहीं प्रोत्साहन के स्वर हैं। सकारात्मक स्वर कविताओं
के नेपथ्य का स्वर हैं, जो एक
ईको की तरह हर कविता के पाठ के साथ बढ़ता जाता है। इस बात की पुष्टि के लिए ये
पंक्तियाँ यहाँ दर्ज कर रहा हूँ:-
“मेरी दोस्त शोख़ियाँ फबती हैं तुम पर
स्त्रियाँ पनाह माँगती हैं
बदमाशियों की पूरी दुकान हो तुम
सुनो! अपने दुखों का ब्याह कर दो मेरे साथ
मैं उन्हें खुश रखूँगा”
इन कविताओं की सबसे विशेष बात यह है कि पाठक पढ़ते हुए थोड़ा और स्त्री तत्व से भर उठता है। उसका पुरुष अपनी दुम थोड़ी समेटता है। मनुष्य थोड़ा और संवेदनशील हो जाता है। ये पंक्तियाँ बरबस रोक लेंगी पढ़ते हुए !
“ये अँधेरे कुएँ में डोरियों-सी उतरीं
प्यास बुझाई और बुझ गई”
या फिर
“ये मेहँदी में चाँद ही बनवाती रहीं
इनका कोई भी प्रेमी नहीं था”
बिम्ब
का प्रयोग बहुत सतर्कता के साथ किया गया है और मात्रा में बहुत बचा कर भी, पर जब भी आती है कौंध के साथ आती है और कहती है :-
“तुम्हारा स्क्रू ढीला है
ये बता-बता कर मुझे पागलखाने की राह दिखाने वाले
एक स्क्रू गुम हो जाएगा
और कभी नहीं कस पाएगी तुमसे ज़िंदगी की गाड़ी”
किसी-किसी
कविता में ये भी लगा, जैसे दो
कविताएँ हैं एक कविता में, जैसे `ये प्यार नहीं है’ की पहली कविता `आज देर हो जाएगी’ पंक्ति पर ही ख़त्म हो गई। मेरे लिये फिर
उसके आगे एक नयी कविता मिली!
मेरी
पसंदीदा कविता ‘पहले सोचना’ को भी दो सुंदर हिस्से में अलग करके पढ़ा मैंने। पहला
हिस्सा तेज आग से जल गई सब्ज़ी पर चिल्लाने के पहले…पर ख़त्म होता है। दूसरे
हिस्से की रागात्मकता और सुर भी अलग हैं जो, “ये जो शहर में धुँध है न”…से शुरू होती है। अब ये शैलजा की विशेषता है या यहाँ कुछ अलग करने की कला
इसका निर्णय शैलजा से बेहतर कोई नहीं ले सकता।
क्या
ही संयोग है कि ‘बख़्तियारपुर’
कविता संग्रह के ठीक बाद इस कविता संग्रह को पढ़ रहा हूँ। इन दोनों में विषय अलग
होते हुए भी स्वर में देशज भाव है, अपना गाँव है और वहाँ की घरेलू ज़िंदगी में घटती घटनाओं में
स्मृतियाँ, अपनी ओढ़नी
हटाती-बिछाती रहती हैं। लोक की गाथा, घर, परम्परा
की बात करती हर कविता का अंत, सकारात्मक
स्वर से किया गया है।
घरों
के भीतर के अंधेरे में बालती ढिबरी की कहानियाँ हैं, इन कविताओं में। तीसरी पहर की गुनगुनी धूप में कुनमुनाते मन
के तरंगों की तान हैं ये कविताएँ। इन्हीं
रचनाओं के बीच एक घर से दूसरे घर के बीच कविता का पुल बनाती शैलजा बहुत तीखे
प्रश्नों से झँझोड़ती भी है। ससुराल और मायका के बीच की दूरी को पाटती कवि, प्रार्थनारत है। यहाँ स्त्रियों का अपने हिस्से का समय
माँगना किसी क्रांति से कम प्रतीत नहीं होता। इस क्रांति के स्वर को अपने भीतर
उतारने के लिए `छोटी बहुएँ’ जैसी
कविता पढ़ी जानी चाहिए।
विषय
और कहन में दोहराव पठनीयता पर असर डालता है। इसलिए रुक-रुक कर पढ़ने की माँग भी
करता है,
पर इस श्रृंखला में ‘सेकंड हैंड किताब और प्यार’ जैसी कविताएँ एक ताज़ी हवा की तरह आती हैं। आपने अभी सोचा कि रुकता हूँ
थोड़ी देर बाद पढ़ूँगा, तभी
ऐसी कविता आपको किताब छोड़ने नहीं देती। शैलजा के पास रुलाने की और चौंकाने की
पर्याप्त कला है। पंक्तियाँ भावुक नम करती निकल जायेंगी और आप अवाक् खड़े रह
जाएँगे। उदाहरण के लिए एक टुकड़ा यहाँ उठाकर लाया हूँ कविता “सब हैं बस अम्मा नहीं हैं” से!
“अम्मा का पेट एक गुलगुला तकिया था
जब वो नहीं रहीं हमारे सिरहाने पथरीले हो गए”
यादें लौटती हैं
तो मन के कितने ही तट घायल हो जाते हैं
मन को कौन रिपेयर करता है भला”
ये
सारा मामला अवलोकन के लोचन का है। इतनी बारीक नज़र और शुद्ध द्रष्टा ही उन मामूली
चीजों पर अपनी ख़ास दृष्टि डालती है ओर लिखती है “बारह नुकीले पिन का सर उठाये वह
जूड़ा हँसता रहा बुआ पर सारे
पिन कलेजे में चुभे”।
बहनें, बुआ पर केंद्रित कविता जैसे हर घर की कहानी कहती हो। हर
कहानी में खट्टे-मीठे दर्द की तासीर है। मूल स्वर में यह उन सारी स्त्रियों के मन
की बात है जो मायके से दूर रहती हैं और स्मृति में मायका लिए घूमती हैं पर मायका
उन्हें उस तरह याद नहीं करता जैसे करना चाहिए ।
प्रेमिकाएँ
सीरीज की तीसरी कविता बार-बार पुनर्पाठ की अपील करती हैं, इसलिए मैंने कई बार पढ़ा और हर बार झनझना गया मन। हर संग्रह
में कुछ कविताएँ ऐसी होती हैं, जिन्हें
भविष्य में प्रतिनिधि कविता होने का गौरव मिलने वाला होता है। शैलजा को ऐसी
प्रतिनिधि कविताएँ मुबारक हों!
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