यतीश कुमार के संस्मरण संग्रह ‘बोरसी भर आँच’ पर युवा कवि अंचित की समीक्षा
यतीश ने ख़ुद कहीं लिखा है कि
किताबें अपना समय ख़ुद तय करती हैं। पिछले दो तीन महीने से काम की व्यस्तता, शारीरिक
अस्वस्थता और उनसे पैदा होती मानसिक दिक्कतों ने कई तरह से घेरा हुआ है।
परेशानियाँ कम नहीं हो रहीं और इन सब के बीच उन किताबों तक जाना कम हो सका है जो
समय खोजती हैं। लेकिन पिछले एक हफ़्ते से, यतीश जी की किताब
ने जकड़ा हुआ था।
किताब इतनी निजी है कि कई जगहों
पर घुसपैठियों की तरह महसूस होता है। फिर यह भी लगता है कि इतना खुशमिज़ाज और उदार
व्यक्ति कैसे इतना कुछ अपने भीतर समेट कर रखता है। इस तरह का लेखन बहुत ईमानदारी
की माँग करता है कि आप अपने मुखौटे जो आप दुनिया के सामने लगा कर रखते हैं, उन्हें लिखते
हुए उतार कर रख दें और बिलकुल अनावृत हो जायें। यह वल्नरेबिल्टी और इससे संवाद ही
किसी भी कवि का मूल गुण होता है और हालाँकि यतीश कई विधाओं में काम करते हैं,
उनको कवि मानना ही बेहतर लगता है क्योंकि वही उनका मूल गुण है।
कथेतर में भी उनकी कविता बारबार निकल कर बाहर आती है।
सामान्य तौर पर और सामाजिक
परिदृश्य के हिसाब से उनके अनुभव बिहार और आसपास बड़े हो रहे अस्सी के आख़िर और
नब्बे के दशक के लोगों के लिए बहुत रिलटेबल हैं। किताब की यूनिवर्सलिटी इतने भर से
भी स्थापित होती है। लिखने वाले का सबसे महत्वपूर्ण काम स्मृतियों को एकत्रित करना
है। दुनिया लिखनेवाले पर काम करती है और उसकी मासूमियत, उसके मन पर
गहरा असर डालती है। लिखनेवाला लगातार अपने भीतर के उस मूल मनुष्य को सहेजने की
कोशिश करता है जहाँ वह निर्द्वंद्व है और क्रिश्चियन पदावली में कहें तो वह अपनी
पापमुक्त अवस्था को दोबारा प्राप्त करने की कोशिश करता है। टॉमस मान के बहाने कहा
जाये तो अदम और ईवा की मूल अवस्था। ज़ाहिर है इसको खोना ही है और इसको पाने का
संघर्ष वह द्वन्द पैदा करता है जो हमारा निर्माण करता है। स्मृतियाँ ही हमारे
औज़ार हैं और स्मृतियाँ ही हमारी मेहनत का फल। फिर किताब में तो ऐसी स्मृतियाँ हैं
जिनसे गुज़रना कहीं से आसान नहीं है। कई बार परेशान होकर किताब रखने का मन होता
है। फिर यतीश का मुस्कुराता चेहरा याद आता है और पाठक आगे बढ़ता है।
एनी एरनौ की किताबों में जब वह
निजी संस्मरण लिख रही होती हैं, समय और राजनीति उनके जीवन की घटनाओं की पृष्ठभूमि बनते हैं।
बीसवीं सदी का फ़्रांस दिखता है। कक्षा में उनको पढ़ाते हुए बार बार द्वितीय विश्व
युद्ध से लेकर वहाँ के छात्र आंदोलन तक और उसके आगे के संदर्भ बार बार आते हैं। इस
किताब से भी भारत की जातीय संरचना और भारत के इस हिस्से के सामाजिक इतिहास को समझा
जा सकता है। यतीश की किताब की द्वंद्वात्मकता इससे भी स्थापित होती है। जिन
विरोधाभासों से अभी का समय गुज़र रहा है, वे सारे विरोधाभास
किताब में हैं और जिसपर बात हो सकती है।
यतीश ने पिछले कुछ सालों में
जितना काम किया है, कमलोग कर पाते हैं। अगर यह उन्हें गंभीरता से लिये जाने के लिए बहुत नहीं
है तो यह किताब उन्हें गंभीरता से लिये जाने पर मजबूर करती है। हिन्दी में पिछले
कुछ सालों में आयी और मेरे पढ़े में इसी तरह की जिन किताबों ने प्रभावित किया है
उनमें “नये शेखर की जीवनी” भी है जिसका ट्रीटमेंट बिलकुल अलग है पर वहाँ भी मूल
में स्मृतियाँ हैं। हमारा समकालीन साहित्य कितना समृद्ध है, यह
भी पता चलता है।
स्मृतियों पर लौटते हुए, आगा अली शाहिद
फ़ैज़ के हवाले से एक कविता में कहते हैं
“और फिर
यहाँ है स्मृति
मेरे दरवाज़े पर।”
यही स्मृतियों की बोरसी है
जिसकी ताप से जीवन चल रहा है और दमक रहा है। यतीश को शुभकामनाएँ।
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