यतीश कुमार के संस्मरण संग्रह ‘बोरसी भर आँच’ पर कवि एवं साहित्यधर्मी अंकुश कुमार की समीक्षा

 

किताबों के बारे में मेरी आमतौर पर यही राय है कि वे आपको कई बार कुछ ऐसा दे ही जाती हैं जिसके बारे में आपने सोचा भी न हो‌। मसलन वह चाहे वाक्य विन्यास हो, सरलता हो या तारतम्यता। अगर कुछ न भी मिले तो यह भी बता जाती है कि हर तरह की किताबें पढ़नी चाहिए ताकि हमें पता चलता रहे कि क्या हमारे लिए रुचिकर हो सकता है क्या नहीं।

पिछले दिनों 'बोरसी भर आँच' पढ़ी। पढ़कर कई जगह लगा कि क्या यह जो लिखा है वह सच है? क्या वाकई यह सब घटित हुआ है? और तिस पर उस हुए को लिखने की हिम्मत चकित करती है‌। यतीश जी की किताब बोरसी भर आँच ने मुझे कई जगहों पर वह हिम्मत दी जिसके सहारे मैं भी शायद कुछ पहलुओं को अपने किसी रचनाकर्म में उतार सकूँ।

बोरसी भर आँच आत्मकथात्मक आख्यान है उस सबका जो यतीश जी के जीवन में घटित हुआ। मैं कुछेक जगहों पर चकित हुआ, कुछ जगहों पर भावुक और कुछेक जगहों पर पहुँचा बचपन में। एक अच्छी किताब आपके साथ यही करती है। वह आपके अलग-अलग भावों को एक जगह लाकर जोड़ देती है।

यह किताब अधिकतर यतीश जी के बचपन पर केंद्रित है। वह बचपन जितना रोमांचक लगता है, उतना ही दुख भरा भी दिखाई देता है। या यह भी हो सकता है कि दुख और रोमांच एक साथ घुल मिल जाते हों। अभावों में से दुख उपजता है, दुख से कुंठा और कुंठा से आदमी पिछड़ जाता है। लेकिन यह पिछड़ने की नहीं बल्कि दुख से पार पाकर जीतने की कथा है। यह कथा है नायक बनने की। सपने देखने और उन्हें पूरा करने की।

किताब जैसे जैसे आगे बढ़ती है, वैसे-वैसे एक चाह उपजती है एक साथ सब जान लेने की। यह किताब की तारतम्यता का ही कमाल है कि वह बोझिल होकर झिलाऊ नहीं होती।

माँ और दीदी का जिस प्रकार का वर्णन यतीश जी ने इस किताब में किया है, उसे पढ़कर लगता है कि दोनों ही ने मिलकर उस बालक को गढ़ा है जो न चाहते भी एक अजीब से दलदल में फँसा जा रहा है। माँ और दीदी ने अगर उस समय साथ न दिया होता तो क्या यही होती बोरसी भर आँच की कहानी? या यह कहानी भी हो पाती? कौन जाने!

आप भी यह किताब पढ़ सकते हैं, राजकमल प्रकाशन और यतीश जी ने बड़े मनोयोग से इसे मूर्त रूप दिया है।

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