कथाकार-संपादक प्रभात रंजन के उपन्यास ‘किस्साग्राम’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

क़िस्साग्राम सही मायने में क़िस्सों का ग्राम है। हर दस पन्ने पर क़िस्सा एक नया मोड़ ले लेता है और एक नये क़िस्से को जन्म देता है। इन क़िस्सों में लोकजीवन और वहाँ की विलुप्त होती संस्कृति और किरदार दोनों मिलकर समय के बड़े फलक पर खेलते हैं। जिस तरह किसी भी समाज में अफ़वाह की ज़मीनी हक़ीक़त फटे हुए परदे से झाँकती सच्चाई की तरह है वैसे ही इन किस्सों में शामिल है जाति-धर्म के बदलते स्वरूप और उसके साथ बदलते राजनीतिक तेवरों का खेल। इस उपन्यास को पढ़ते हुए लगता है जैसे स्मृतियों की तपन में परिदृश्य की अकुलाहट ने समय की चारदीवारी तोड़ कर लेखक को इसे रचने पर मजबूर किया है। यहाँ कटाक्ष की धार व्यंग्य लिए है। आडंबरहिप्पोक्रेसीदोमुँहापन, ढोंग रचते हुए भी लेखक ने परिहास और व्यंग्य के अंतर पर नियंत्रण बरकरार रखा है। प्रभात बिहार के उस परिदृश्य को रच रहे हैं जहां से पूरे देश के बदलते स्वरूप की झलक आपको दिखेगी। धर्म, जाति और राजनीति के साथ बदलते सामाजिक स्वरूप के ताने-बाने पर कसती हुई यह लेखनी समाज में फैली अव्यवस्था को चुटीले रंग में रंगते हुए लेखक की पैनी दृष्टि का अवलोकन भी करवाती है।

प्रभात ने अन्हारी गाँव को केंद्र में रखा है पर पढ़ते हुए ये किरदार और घटनाएँ मुझे बड़हिया या हसनपुर इलाक़े का लगता है जहाँ मेरा बचपन गुजरा। इस तरह से देखें तो यह हर गाँव की कहानी होगी और  उस समय की स्मृतियों में सब घटनाएँ मिल जायेंगी। इस तरह से यह एक विशेष कालखंड का वितान है जो समय के साथ रूप तो बदलता है पर स्वरूप में यथावत उसी तरह रहता है। रंगदारी, मूर्ति खंडित करने की घटना, चमन ठाकुर, गणपत पंडित, नंदन, बुरहान ख़ान, बिरंची, छकौरी पहलवान, गोपाल शर्मा, सुशील राय, पीर मोहम्मद, अदौरी लाल साह, रामस्वार्थ राय सभी घटनाएँ और किरदार आपको आपने इर्द-गिर्द मिल जाएँगे। मूर्ति टूटना गाँव में कोई साधारण घटना नहीं मानी जाती। अभी क्या ही संयोग है कि जमालपुर में पोस्टिंग के समय काली पहाड़ी पर मंदिर बनी थी जिसमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर थोड़ा सा योगदान मेरा भी रहा। कुछ दिन पहले वहाँ भी ऐसी हरकत हुई पर संयोग से बात संभल गई।

लेखक ने इस किताब में अपनी मंशा साफ़ रखी है। जोड़-घटाव की राजनीति को उजागर करना शायद इसलिए अपनी बात कहने के बाद अंत में दादी के मुँह से एक फिकरा सुना कर अंत कर देते हैं जिसका घुमा कर मतलब यही है काम से मतलब रखो, कहानी के अंत से नहीं।

भाषा अपने लोक से जुड़ी हुई है और जो बिहार के भाषाई मिजाज को समझने और वितान को सही से संप्रेषित करने में सक्षम है। द्वन्द और संशय इसका मूल स्वर है जिसके आँच में पूरी कहानी बढ़ती है। इसे लिखते हुए प्रभात ने एक कैलकुलेटेड रिस्क लिया है। इस रिस्क में कथा का संयोजक ख़ुद बहुत पीछे नेपथ्य में रहकर किरदारों के सहारे कहानी को आगे बढ़ाता है। पांडुलिपि मैंने पढ़ी थी और तभी इसमें छुपे रिस्क को समझ गया था। आज के समय में पाठकों के समय की कमी का ख़्याल और इत्यादि का स्कोप न बढ़ जाये दोनों को साधते हुए एक रोचक उपन्यास प्रभात ने रचा है जिसे अब खूब पढ़ा जा रहा है। कुल मिलाकर क़िस्साग्राम आज के समय की नब्ज़ को समझकर लिखा गया संतुलित समसामयिक उपन्यास है। इसके लिए प्रभात जी को बधाई।

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