यतीश कुमार के संस्मरण संग्रह ‘बोरसी भर आँच’ पर वरिष्ठ लेखक-चिंतक डॉ योगेन्द्र की टिप्पणी
ठंड जब बहुत पड़ती थी तो दादी
बोरसी का इंतजाम करती थी। जाँघ और दोनों टांगों के बीच बोरसी लेकर उस पर चादर डाल
कर ताप को महसूसने में अद्भुत मज़ा आता था और सोते वक़्त खटिया के नीचे उसे रख कर
ठंड को कोसों दूर भगाया जाता था। बोरसी की एक दूसरी कथा भी है और वह है बोरसी से
कभी-कभी आग भी लग जाती थी। मेरे पिता इसी आग की पीड़ा से गुजरे और चल बसे।
स्मृतियाँ दोतरफा मार करती हैं, वह रससिक्त भी
करती हैं और पीड़ा से भी भरती हैं। यतीश कुमार की स्मृतियों से गूँथी पुस्तक
‘बोरसी भर ऑंच’ में रस भी है और अथाह पीड़ा भी। उनकी माँ अस्पताल में काम करती है।
पति शिक्षक थे, मगर ब्रेन ट्यूमर से गुजर गये। पुन: जिस
डॉक्टर से संपर्क हुआ, उसकी त्रासद मौत हुई। इस बीच पलते रहे
- चीकू के नाम से यतीश, एक बहन और भाई। अभावों के बीच कोई
फूल खिल सकता है तो समय की मार से मुरझा भी सकता है। चीकू ने जैसा जीवन जीया,
उसमें दोनों संभावनाएँ थीं। चीकू उबर गया, जिजीविषा
थी, वक़्त से जूझने का माद्दा था, लेकिन
बहन का कैरियर थमा। बहन संवेदनशील थी, चीकू को संरक्षित करती
रही, लेकिन वह नफ़रत और अज्ञात दुश्मनी के शिकार हुई। उसे
बेवजह मैट्रिक परीक्षा से निष्कासित कर दिया गया। अभावग्रस्त परिवार को जब भी
मौक़ा मिलता है, लड़की को विदा करना चाहता है। जब एक लड़के
की ओर से बिना दहेज के शादी के लिए ऑफर आया तो उसे कैसे ठुकराया जाता? यतीश अफ़सोस भी करते हैं, पर उस वक़्त रास्ते कहां
थे? यह अलग बात है कि बहन में अदम्य साहस था। वह ब्यूटी
पार्लर खोल कर अपने पैरों पर खड़ी हुई और खुशियों से
भरा जीवन अपने परिवार के साथ जी रही है।
मुझे यह पुस्तक दो वजहों से
मोहती रही- एक, मैं चीकू की स्मृतियों से कनेक्ट होता रहा और दूसरी, पूरी स्मृति- कथा मेरे जिले की है और वह दृश्य बन कर आती रही। वह किऊल नदी,
जिसका आधार लेखक लेता है, उसके पुल से मैं
सैकड़ों बार गुजरा होऊँगा। उस वक़्त भी जब नदी सूख जाती है और बालू लुटेरे खूनी
खेल खेलते हैं और उस वक़्त भी जब नदी बरसात में उफान पर होती है। जिन स्थानों का
प्रमुख रूप से इस पुस्तक में उल्लेख है, वे मेरे ह्रदय के
पास रहे हैं- चाहे लखीसराय हो या तेतरहट। जमुई हो या मुंगेर। संयोग ऐसा कि मुंगेर
के जिस माधोपुर मोहल्ले में यतीश का ननिहाल है, उसी मोहल्ले
में मेरा भी ननिहाल है। लेकिन किताब इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है। वह महत्वपूर्ण है
यतीश की संवेदनशीलता और ईमानदारी के कारण। स्मृतियाँ कथा, कविता
और उपन्यास के केंद्र में रहती ही हैं, बल्कि स्मृतियाँ
सृजनात्मक विधाओं की बुनावट का अनिवार्य हिस्सा है। कोई उन्हीं स्मृतियों को
परोसता है, जो उन्हें गौरव प्रदान करती हैं। कोई कोई लेखक उन
स्मृतियों को शब्द देता है, जो कटु है।
यतीश ने अपनी बातें कबीर की तरह
ईमानदारी से कही है, इसलिए यह पुस्तक न केवल रोचक है, बल्कि समाज की अनेक
विद्रूपताओं को उद्घाटित करती है। लेखक दो स्तर पर जी रहा होता है- निजी स्तर पर
माँ है, बहन है, माँ के साथ-साथ काम
करतीं नर्सें हैं और उनके दोस्त हैं और उनसे घिरा - जुड़ा उनका समाज है।
पुस्तक में कुल बारह अध्याय है
और अध्यायों के नाम कविता के शीर्षक की तरह हैं। इधर मैंने स्मृतियों से लबालब
विनय सौरभ की कविता पुस्तक ‘बख्तियारपुर’ पढ़ी । विनय कविता में कथा का सहारा लेते
हैं और यतीश कथा में कविता का सहारा लेते हैं। विधाओं का यह अंतर्गुम्फन दोनों
पुस्तक को महत्वपूर्ण और संप्रेषनीय बनाती हैं। ‘बोरसी भर ऑंच’ का पहले अध्याय का नाम है- ‘अस्पताल
तक जाती नदी।’ अस्पताल है तो समाज की अनेक घटनाएँ बह कर वहाँ पहुँचती हैं। कहना
चाहिए कि अस्पताल अनेक मार्मिक घटनाओं का साक्षी होता है। अस्पताल की अंतर्कथाएं
जब लेखक कहता है, तो वे रोमांच और अवसाद से भर देती है। किसी माँ ने बच्चे को जन्म दिया और
वह चल बसी। उसके साथ कोई नहीं है। है तो
सिर्फ़ बच्चे की चीखें। किसी लड़की का जन्म हुआ और उसे मारने की साजिश रची गई।
रेलवे स्टेशन से लायी ज़ख़्मी औरत, गोली से घायल व्यक्ति,
रेल में नशा से बेसुध किये यात्री, लपटों से
ज़ख़्मी नवजात शिशु, बूढ़ी अम्मा, नववधू
की कथाएँ हमें जैसे जकड़ लेती हैं। लेखक सहज ढंग से अपना संसार रचता जाता है ।
कैसा दृश्य रहा होगा, जब अस्पताल में अनेक लाशें बिछी थीं,
इस वजह से कि खचाखच भरी एक बस नदी में जा गिरी और ज्यादातर यात्री
चल बसे और फिर प्रशासन की साज़िश कि जैसे हो इन लाशों के ठिकाने लगाओ।
दूसरा अध्याय है- भागता बचपन।
इस अध्याय में चीकू का अकेला होते जाना, माँ का डॉक्टर के साथ होना, अस्पताल के स्टाफ की साजिशें, विधायक द्वारा डॉक्टर
का प्रताड़ित किया जाना, फिर डॉक्टर का आत्मविश्वास का बिखर
जाना और उनकी दर्दनाक मृत्यु। आप जब इन कथाओं से गुजरेंगे तो सामंती जहरीले समाज
से आपका गहरा परिचय तो होगा ही, साथ ही चीकू का भयावह
अकेलापन आपको संवेदित होने के लिए मजबूर कर देगा। आगे का अध्याय है- दीदिया : मेरे
कोमल मन की पक्की ढाल। चीकू के कच्चे मन की दीदिया ढाल तो है ही, लेकिन इस अध्याय में एक अभावग्रस्त परिवार की संवेदनशील कथा भी है। अगर
चीकू की कॉमिक्स की किताबें हैं तो चिंता और उर्वशी मौसी भी है। चीकू की चोरी,
मौज- मस्ती है , तो उनकी बीमारी भी है। आगे
‘बैरन डाकिया’ है। उसने कैसे अप्राकृतिक व्यवहार करने की कोशिश की, लेखक इस घटना का पूरी ईमानदारी से उल्लेख करता है।
‘अस्पताल: स्नेह,
ममता और प्रेम’ , ‘कसैला पानीफल’
, ‘स्मृति के रंग में होली’, ‘बड़की
अम्मा’, ‘ड्राइविंग का डर’, ‘भैया:
अनजाना संबल’, ‘और कितने क़रीब’ अध्याय
से गुजरते हुए लगेगा ही नहीं कि आप इसमें नहीं हैं। उर्मिला मौसी के स्नेह में
डूबा चीकू या कसैले पानी फल की चोरी में पकड़े उसके दोस्त को दिये गये मरणांतक सजा
या बड़की अम्मा और भैया की संवेदनशील कथा से पिंड छुड़ाना मुश्किल है । इस पुस्तक
में अज्ञेय, वीरेन डंगवाल, राजेंद्र
धोड़पकर, जॉन एलिया, ब्रजेन्द्र
त्रिपाठी, उदय प्रकाश, विष्णु खरे,
इरफ़ान सिद्दीक़ी, जावेद अख़्तर, जोश मलीहाबादी, आबिद अदीब, इब्ने
इंशा, राजेश रेड्डी, बशीर बद्र ,
फरीद परबती , साहिर लुधियानवी के उद्धरणों का
संदर्भ के अनुसार उल्लेख कम महत्वपूर्ण नहीं है और उस पर अखिलेश और उदय प्रकाश की किताब पर टिप्पणी उसकी महत्ता को रेखांकित करती है। मैं
इतना ज़रूर कहूँगा कि आप अगर साहित्य में जरा भी रुचि रखते हैं तो यतीश कुमार की
इस किताब को ज़रूर पढ़ें।
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