यतीश कुमार के संस्मरण संग्रह ‘बोरसी भर आँच’ पर कलाविद सुशील कांति की टिप्पणी
एक
किताब जो उदास करती है, हताश
करती है,
हर दो-चार पृष्ठों के बाद लंबी सांस खींचकर आंख बंद कर लेने
को मजबूर करती है। क्षमा करें, यह
मेरा बिलकुल निजी अनुभव और विचार है। ऐसा हर व्यक्ति, जिसे इस संस्मरण में अपना संघर्ष और बचपन दिखता हो और जीवन
में अब भी सफल न हो, उसे हताश
करेगी।
इस
संस्मरण के कई हिस्से, ऐसा लगता
है जैसे मेरा जीवन हो। समयकाल वही है जब मैं भी अपने गांव बेनीपुर (दरभंगा जिला)
में बेहद अभावों का जीवन जीते हुए पढ़ाई कर रहा था। मैं कक्षा पांचवीं में था तब मेरे पिताजी गुजर गए। मां
साधारण पेंशन पर परिवार की गाड़ी खींच रही थी। बहरहाल, अपनी कहानी नहीं, 'बोरसी भर आँच' की बात हो।
उदय
प्रकाश ने ठीक ही लिखा है इस पुस्तक के बारे में 'पूरी उम्मीद है समकालीन रचनात्मक परिदृश्य में 'बोरसी भर आंच' अपनी खास जगह बनाएगी'। बात सच भी है। मैंने कई लोगों से इस पुस्तक की चर्चा की, उनमें से कई इसे पढ़ चुके हैं, कई पढ़ना चाहते हैं, एक तो हमारे साथ साथ पढ़ भी रहे थे। मेरे साथ साथ उनकी राय
भी यही थी कि गजब की भाषा है इस पुस्तक की। भाषाई स्तर पर भी कहीं ऊब पैदा नहीं
करती। वैसे ऐसी भाषा बहुत साधना के बाद ही आती है।
यतीश
कुमार एक जगह लिखते हैं- 'बुद्ध की
तरह उसकी आँखें खुलीं तो पिता उसे कहीं नहीं दिखे। चन्द्रमा के बदले वह भी
बृहस्पति के साथ बड़ा हुआ और आगे भी पिता उसकी ज़िन्दगी में एक ग्रह की तरह ही बने
रहे। रिश्ते में उस समय दूरी या खटास आने लगती है जब कुंडली में उन रिश्तों के
स्वामी ग्रह कमज़ोर होने लगते हैं और चीकू की ज़िन्दगी में इस समय सारे ग्रह अपने
उचित स्थान से विमुख थे।' बेहद
चिंतन - मनन की मांग करती है ऐसी भाषा।
बचपन
की कहानी सुनाते-सुनाते लेखक, तत्कालीन
सामाजिक परिस्थितियों, दबंगों
की दबंगई,
राजनीतिक प्रभाव, नक्सली आंदोलन, सवर्णों का वर्चस्व, अस्पतालों में व्याप्त भ्रष्टाचार को भी उजागर करते चलते
हैं। इन परिस्थितियों में पलते - बढ़ते लेखक (चीकू) का संघर्ष है। मुझे यह संस्मरण
पढ़ते हुए लगा कि यह लेखक से अधिक लेखक की मां का संघर्ष है। अखिलेश ने भूमिका में
सही लिखा है, 'माँ
सुन्दर थी और संघर्षरत भी, ऐसे में
एक मर्दवादी लोलुप समाज में उसके लिए जीने की डगर कितनी कठिन थी और उसने कैसे अपने
तीन बच्चों के संग उसे पार किया, यह
सब यतीश की इस पुस्तक में पढ़ना विचलित करनेवाला है।'
कहते
हैं कि बचपन में मां की मृत्यु हो जाए तो पिता के लिए बच्चों को पालना कठिन हो
जाता है। मगर एक अकेली मां अपने बच्चों को पाल सकती है। पुस्तक में लेखक की मां
जितना मजबूत इरादे के साथ दिखती है उसी तरह दीदी भी हर परिस्थिति का मुकाबला करने
वाली बनती है। चीकू की बदमाशियों, मुश्किलों
को अपने सर ले लेने वाली दीदी लक्खीसराय के विपरीत परिस्थितियों को बेहद निडरता के
साथ सामना करती है। आज लेखक के इस मुकाम तक पहुंचने के पीछे दीदी का बहुत योगदान
दिखता है।
बचपन
में कई क्षण ऐसे आए जब लेखक को मौत से सामना हुआ। पानी में डूबने, आग से जलने, गाड़ी के नीचे आने, दीवार से गिरने, हाल ही में कोरोना की मार के बावजूद लेखक बचते रहे। मतलब
जिन्हें मौत ने न मारा उन्हें फिर किस बात का डर ! इसलिए मैंने जब जब भी यतीश जी
को देखा है, एक खुशमिजाज इंसान, जिंदादिल इंसान के रूप में देखा है। उनकी खुशमिजाजी बनी रहे, जिंदादिली बनी रहे। उम्मीद है, और भी बेहतरीन गद्य उनकी कलम से निकलेगा।
इतनी
ईमानदारी और डिटेल के साथ लिखा गया यह संस्मरण किसी भी पाठक को पूरी तरह बांध लेने
में सफल होता होगा। पहला संस्करण फरवरी 2024 है और शायद अब कई संस्करण हो चुके होंगे। कोई संदेह नहीं कि
गिने चुने संस्मरणों में इसे स्थान जरूर मिलेगा।
जयपुरिया
कॉलेज के असिस्टेंट प्रोफेसर संजय राय का आभार, जिसने इस संस्मरण को पढ़ने के लिए प्रेरित किया।
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