यतीश कुमार के संस्मरण संग्रह ‘बोरसी भर आँच’ पर लेखक डॉ. प्रवीण कुमार झा की टिप्पणी
मानव
कौल ने कहा कि जब एक नॉन-फिक्शन लिख दिया जाता है, वह फिक्शन हो जाता है। उनका अर्थ संभवतः डायरी लेखन या
संस्मरणों के लिए था, जो भले
यथार्थ हों, लेकिन व्यक्त करने के
बाद वह गल्प बन जाते हैं। चाहे वह कितने भी सच्चे हों, एक पाठक उसे रिपोर्ताज की तरह नहीं, कथा की तरह पढ़ेगा (या पढ़ना चाहेगा)।
हुआ
यूँ कि मुझे मालूम पड़ा कि लेखक यतीश कुमार ने एक संस्मरण लिखा है, और वह लोकप्रिय हो रहा है। मैंने किंडल पर उनके नाम से
किताबें ढूँढी। दो शीर्षक दिखे, और
दोनों ही संस्मरण हो सकते थे। ‘अंतस की खुरचन’ और ‘बोरसी भर आँच’। यूँ तो यह सोशल
मीडिया युग है, और मैं बड़े आसानी से
लेखक से पूछ लेता, लेकिन
मैंने अक्कड़-बक्कड़ करते हुए ‘अंतस की खुरचन’ किंडल पर डाल ली कि यह खुरचन ही
संस्मरण होगी। लेकिन, यह
कविता-संग्रह निकली! ‘बोरसी भर आँच’ संस्मरण थी।
इस
संस्मरण में लेखक ने अपने बचपन की नॉस्टेल्जिया को उकेरा है। जो अस्सी के दशक में
बिहार में बड़े हो रहे थे, वह इस
पुस्तक में कई समानांतर देख सकते हैं। जैसे मुहल्ले में सिर्फ एक टेलीविजन होना, ट्रेन में बेटिकट घूमना और चेन पुलिंग, टेपरिकार्डर, राजीव गांधी को करीब से देखने की इच्छा, इंदिरा गांधी की हत्या की खबर रेडियो पर सुनना, संतोषी माँ फिल्म देखने जाना, रामायण और महाभारत टेलीविजन पर देखना आदि। लेकिन, इन सबसे परे जो लेखक के व्यक्तिगत संस्मरण हैं, वे इस पुस्तक की नींव हैं।
कुछ
ऐसे दृष्टांत हैं जिन पर अलग से पुस्तक लिखी जा सकती थी। जैसे एक अवर्ण कम्युनिस्ट
चिकित्सक हैं, जो अंतर्जातीय विवाह
करते हैं,
और बाद में डॉक्टरों को सहज उपलब्ध नशे के शिकार होते हैं।
उनकी पत्नी एक नर्स हैं, और यह
संबंध न सिर्फ जाति-भेद बल्कि वर्ग-भेद से ऊपर जाकर बनता है।
दूसरा
दृष्टांत है एक बच्चा जो अस्पताल के परिवेश में ही बड़ा हो रहा है, और अपने आँखों के सामने रोगियों, लाशों, घायलों
को देख-सुन रहा है।
तीसरा
दृष्टांत है कि माफ़िया और नक्सलों के जाति-आधारित संघर्ष चल रहे हैं, रक्तपात हो रहा है, और उनके मध्य इनके दबंगों का साधारण स्थानीय जीवन भी चल रहा
है।
चौथा
दृष्टांत है कि अपने निकट परिजन महिला से एक किशोर का यौन-आकर्षण और जिज्ञासा।
नॉर्वे
के लेखक कार्ल ओवे क्नॉसगार्ड ने ऐसे ही दृष्टांतों से मोटे-मोटे आठ वॉल्यूम लिख
डाले हैं,
जैसे एक वॉल्यूम सिर्फ़ अपने पिता पर आधारित है। एक
नौकरीपेशा पार्ट-टाइम लेखक के लिए इतना विस्तार देना कठिन हो सकता है, लेकिन भविष्य में ऐसे प्रयास किए जा सकते हैं। चूँकि यह सभी
दृष्टांत लेखक के निजी जीवन से हैं, तो अवश्य कई भावनाएँ भी जुड़ी होती है। बल्कि इतना दर्ज़
करने की क्षमता भी सब में नहीं, जितना
लेखक ने किया है।
कई
स्थानों पर आंचलिक शब्दों से परिचय मिलता है जैसे- चहबच्चा, घुमउआ (जो हमारे अंचल में झक्खा भी कहलाता है)…वहीं लेखक के
अंदर का कवि भी कई बार वितान रचता है, जैसे- ‘मन एक अजायबघर है जहाँ स्मृतियाँ अलग-अलग रूप में
पनाह लेती हैं और रात्रि के एकान्त में अर्द्ध-चैतन्य से बाहर निकलकर चेतना के
मनोभाव पर नृत्य करने लगती हैं और कभी-कभी सुबह के सपनों में ढल जाती है।’
यूँ
तो आत्मकथात्मक संस्मरणों की आलोचना नहीं करनी चाहिए, लेकिन यह कहूँगा कि लेखक के मन में इतनी कथाएँ, इतनी यादें थी कि वह बहुत तेज़ भागते दिखते हैं। उनका डायरी
लेखन उनके कवि चेतना पर भारी होता दिखता है। वह अध्याय के आरंभ में एक लंबी साँस
लेकर कुछ काव्यात्मक लिखते हैं, उसके
बाद ब्रेथलेस हो जाते हैं। कई घटनाएँ भले लेखक के लिए महत्वपूर्ण रही, और उसे अधिक समय दिया गया, पाठक से कम जुड़ पाती हैं। वहीं कुछ घटनाओं पर पाठक विस्तार
चाहते थे,
वहाँ कम लिखा गया है।
मानव
कौल ने ही मुझे एक बात और कही। ऐसे नॉन-फिक्शन लिखने का अर्थ नहीं, जिसमें पर्सनल एलीमेंट न हो। यानी आप यूनान पर भी लिख रहे
हों,
तो उसमें अपने निजी अनुभवों को लाएँ, खुद को जोड़ें। पाठक यूनान की कहानी तो कहीं भी पढ़ लेगा, लेकिन आपकी कहानी तो आप स्वयं ही कह सकते हैं। एक लेखक के
लिए सबसे मुश्किल होता है खुद पर कलम चलाना। यह अंतस की खुरचन, यह बोरसी भर आँच सबके बस की बात नहीं। ‘बोरसी भर आँच’ में
लेखक ने एक सच्चा नॉन-फिक्शन रच दिया है।
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