यतीश कुमार के संस्मरण संग्रह ‘बोरसी भर आँच’ पर लेखिका लकी राजीव की टिप्पणी
“यादों के समय दृश्य बार-बार फॉरवार्ड रिवर्स होने लगते हैं और बहुत तेज़ी
से भीतर कहीं भंवर सी उमेठ उठाती है और वमन की तरह कुछ पंक्तियां कागज पर पसर जाती
हैं, तब जाकर चित्त को
थोड़ा सा आराम थोड़ा सा सुकून मिलता है। यात्रा की ऐसी मुक्ति के लिए ही संस्मरण
लिखे जाते हैं।”
‘बोरसी भर आँच’ लिखने का कारण लेखक इन पंक्तियों में बता जाते हैं। लेखक
कौन है,
एक छोटा बच्चा है, जो अपने चश्मे से एक दुनिया को देख चुका है, फिर वही चश्मा उतारकर पाठक को थमा देता है, लो देखो मेरी दुनिया! उस दुनिया को देखने के लिए हम स्क्रीन पर नज़रें जमा देते
हैं।
वहां
अस्पताल है, अस्पताल में घर है…या
घर है,
घर में अस्पताल है। माँ नर्स है या नर्स माँ है और दीदी, दीदी छाँव है या छाँव का नाम दिदिया है। जब जब भाई बहन साथ
आकर मेरे सामने बैठे, मेरे लिए
पढ़ना मुश्किल हुआ। मैं बार-बार चश्मा उतारकर आंसू पोंछती रही। हालांकि चश्मा और
भी जगह उतारना पड़ा, जिसके
बारे में बताती हूँ। छोटे
छोटे बच्चे हैं, अस्पताल जैसे घर की
अव्यवस्था में पल रहे हैं। चाय पकौड़े की सप्लाई में बचपन धुआं हो रहा है, खून देखने की आदत हो चुकी है। जो नहीं देखना चाहिए,उसकी आदत पड़ जाए,इससे ख़राब क्या होगा? और फिर वो जानलेवा सुबह...
“अचानक देखता हूं खुले मैदान में मंच सज गया। डॉक्टर और
स्टाफ की फौज अजीब से अस्त्र-शास्त्र के साथ जुड़ गई। मेरी दीदी ने एक हाथ से मेरा
और दूसरे से अपना मुंह दबा रखा था। दोनों की आंखों से खारे पानी की धाराएं भी जा
रही थीं,
नीचे ठीक सामने तांडव जारी था, दिख रहा था हथौड़े और छेनी जैसे औज़ारों से सीना बेधा जा
रहा था,
अंतड़ियां बाहर आ रही थी और उस शरीर को छोड़ बारी बारी से
अगली देह पर प्रहार किया जा रहा था।” (इस सुबह पर पूरी एक कहानी लिखी जा सकती है, ऐसा मुझे लगता है)
अद्भुत
किस्से हैं, अजीब
हादसे हैं। प्रशांत के साथ हुआ भांग वाला कांड, पता नहीं क्यों भीतर तक झकझोर गया। बूढ़ी अम्मा का कायाकल्प
(जुओं से मुक्ति) तसल्ली दे गया। अंडा करी खिलाने की क़ीमत वसूलने रात में आया वो
परिचित हो या बैरन डाकिया, सब इसी
समाज का हिस्सा हैं, ये सच
लीलना ही पड़ता है।
“शोक ऐसा बीज है, जो हज़ार गुना गति से बढ़ता और फैलता है” / “कभी-कभी
रुलाई गले से नहीं अंधे कुएं से उतर कर आती है, गला कब अंधे कुएं में बदल जाता है पता ही नहीं चलता” / “पिता
पुत्र का रिश्ता कुछ ऐसा हो गया था जैसे कुत्ते और ढेले का”/ ऐसी
कितनी पंक्तियां कोट करूं, ये बड़ा
प्रश्न है। कितने
पात्रों की चर्चा करूं?
कुछ
रिश्ते ऐसे उलझे हुए रहे, जिनको एक
बेहद संवेदनशील इंसान ही समझ सकता है। उर्मिला मौसी के प्रति चीकू का प्यार, उसके बाद उनका चीकू के जीवन से पूरी तरह ग़ायब हो जाना या
परिस्थितियों के चलते जीवन में ऐसा निर्वात आ जाना, जहां कुछ और कभी आ ही नहीं सकता। मुझे कुछ बच्चे याद आए, उनका बचपन..मेरा उनसे लगाव, फिर उनका चले जाना। ये मेरी दुखती रग थी, जो बहुत बुरी तरह रुलाती रही।
दीदी
के बारे में क्या लिखें, उनके लिए
तो आप एक पूरा उपन्यास लिखिए। परीक्षा भवन में नकल वाला कांड बेहद दुखी कर गया, हालांकि बाद में जो हुआ वो प्रेमचंद जी की कहानी 'मंत्र' की
याद दिला गया। बड़की अम्मा की ललकारती आंखें चीकू को गोदी में उठाकर एक एक सीढ़ी
चढ़ाती गयीं, कोई और होता तो शायद
उन आंखों के ताप से भस्म हो गया होता। एक सबसे ज़रूरी बात, मुझे एक बात अच्छी लगी नहीं (पहले), हर बात पर बच्चे की कुटाई, लगभग हर दिन। (उसका कारण रहा होगा कि मेरा ऐसा कोई अनुभव रहा नहीं)
लेकिन
जैसे जैसे मैं चीकू की माँ को समझने लगती हूँ, मेरा मन भीगने लगता है। हर दिन बिताना जैसे कोई टास्क हो
उनके लिए,
संघर्ष हर घंटे सुई की टिक टिक जैसा साथ चलता रहा। ऊपर से
ऐसी कोई शरारत नहीं जो बच्चे ने की न हो, चाहे तालाब से फल की चोरी हो या करेंट खाने के नए तरीके
आज़माने का शौक़, ऐसा कोई
उत्पात था नहीं जो चीकू ने छोड़ा हो!
“मां को समझना कितना मुश्किल होता है, प्रकृति की सबसे जटिलतम चीज़ प्रत्यक्ष में कितनी सरल
प्रतीत होती हैं जब लता मंगेशकर गाती है तो गायन कितना सरल प्रतीत होता है जब सचिन
बैटिंग करता है तो बैटिंग कितनी सरल लगती है, मां भी प्रत्यक्ष में उतनी सरल लगती है जबकि नेपथ्य में वह
घर,
अस्पताल, पिता, सारे रिश्ते और साथ में सारी दुनिया की उलाहने, मेरे लिए कहे कुवचन सब एक साथ संभालती है।”
ये
पंक्तियां मुझे गिल्ट थमा जाती हैं। माँ होकर भी एक माँ को नहीं समझ पायी मैं? और अगली पंक्तियां मुझे मेरी मां की याद दिलाकर बेचैन कर
जाती हैं,
“घर के सामने सीमेंट की चादर की ओट से
कहीं-कहीं नहर का निकला खुरदुरा हिस्सा झांक रहा होता है, जहां कभी दलदली मिट्टी में मछलियां छुपी रहती थीं। वो
झांकता हिस्सा ऐसे ताकता है जैसे फटी हुई शॉल के छेद से अम्मा के खुरदुरे हाथ
ताकते थे”।
लिखने
बैठूं तो लिखती ही जाऊं, रुकना तो
पड़ेगा ही। लिखना रोका जा सकता है,सोचना नहीं। पढ़कर लगता है मखमली बचपन जीने के लिए मैंने
पिछले जन्म में क्या पुण्य किया था..फिर लगता है फ़ोन करके पापा मम्मी को ये सब कह
दूं?
फिर झिझक तारी हो जाती है, तब लगता है हाथ जोड़कर, आंखें मूंदकर धन्यवाद तो बोल ही दूं.. ईश्वर को, घर के लोगों को, और 'बोरसी
भर आंच '
के लेखक को भी।
आपने
कितने कष्ट सहे, बात वो नहीं है, बात ये है कि आप बुझे नहीं, भौतिक रूप से सफ़लता तो आपको जब मिली तब मिली, जीवन के हर कटु अनुभव के बाद आपके भीतर एक छोटा सा बल्ब जला, धीरे धीरे इन बल्बों की संख्या बढ़ी, बल्ब लड़ियों में तब्दील और सब कुछ रौशन!
आप
ऐसे ही जगमगाते रहें और अगर कोई चीकू मिले तो उसे यतीश कुमार बनने में मदद करते
रहें, यही शुभकामना है
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