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Showing posts from June, 2023

वरिष्ठ लेखक शरणकुमार लिम्बाले की आत्मकथा 'अक्करमाशी' पर यतीश कुमार की काव्यात्मक समीक्षा

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1. जिन यादों को मन में कहने की इच्छा होती है वो हरी हो जाती हैं हरे ज़ख्म और हरे हो जाते हैं छितराती छाँव की तरह स्मृतियों की छाया मन की ज़मीन पर डोलती है डोलती छाया में तड़पता आदमी दिखता है सपनों में स्वर्ग दिखता है पर स्वर्ग से टूटी डोर का पता सबसे पहले सफ़ेद गिद्धों को चलता है 2. उस बस्ती की औरतें अच्छी लगती हैं रोटी नहीं माँ जब चक्की पीसती है तो चक्की की आवाज़ , माँ की गाती आवाज़ एकमय हो जाती हैं उसके यहाँ वह ऐसे रही जैसे किसी के शौक़ में कबूतर रहता है अपने आँवल को अब ढूँढ़ रहा हूँ पिता का नाम अंधकार है अंधकार की कोई आकृति नहीं होती उसमें आकृतियाँ विलीन होती हैं 3. पेट से सिर्फ हम नहीं जन्मते जन्मती है सप्त पाताल से गहरी भूख आदमी से बड़ी रोटी की तलाश लिए कोई गर्भपात की तरह भूख फेंक सकता है क्या ? जानवरों की गोठ-सी ज़िंदगी में भूख की कितनी जुगाली संभव है हम्माली ज़रिया है और फूँकी हुई बीड़ी ज़िंदगी मिट्टी की गीली ज़मीन में फर्श का एक टुकड़ा ज़िंदगी खाली पेट होटल में पानी भरने के बदले मिली एक कप चाय ज़िंदगी उत्खनन से प्राप्त मूर्ति के चेहरे पर फैली स्याह के बीच मींचती मुस्कान ज़िंदगी है जिसन

उर्मिला शिरीष के उपन्यास ‘चाँद गवाह’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

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' चाँद गवाह ' जीवन के अधूरेपन में प्रेम की परिपूर्णता खोजती हुई विपरीत धुरी पर घूमती स्त्री के मन के गहरे उद्वेलन की कथा है। वहाँ उस बवंडर में कुछ छपाक हुआ और विलीन हो गया , जिसके ढूँढ की कहानी है यह उपन्यास। प्रेम और प्रेम के बीच के निर्वात में दोस्ती , साहचर्य , सहानुभूति , मानवता टहलती है उसी टहल का वितान है यह उपन्यास। लेखिका ने एक ही किरदार में अहिल्या , द्रौपदी , कुंती , सत्यवती , दुर्गा , सरस्वती , लक्ष्मी सब का देवत्व स्त्रीत्व का अंश घोल दिया है जिसे , ख़ुद को समझना है और समझ कर जीना है। हृदय का संलाप और संलिप्तता सब गुन रही हैं लेखिका और रच रही हैं वर्तमान का दर्द , स्त्री का दर्द स्त्री ही जिसे समझने में अपनी असमर्थता जता रही है। खुलकर खिलने और जीने की वकालत है यहाँ। ऐसा करते हुए चोटिल स्त्री मन के आगे ठंडे चेहरे पर गरम हथेली रख देती हैं। मुक्ति , सशक्तिकरण , सृजनात्मकता , स्वाधीन व्यक्तित्व , आजादी , सौंदर्य और कला वैचारिक स्वतंत्रता न जाने कितनी बहसें छिड़ी हुई हैं स्त्री विमर्श के नाम पर और लेखिका इन सारे मसलों को कभी क्रमशः तो कभी एक साथ उकेर रही हैं। यह किताब

देवी प्रसाद मिश्र के कथा-संग्रह ‘मनुष्य होने के संस्मरण’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

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दोहे और मुहावरों को अमरत्व प्राप्त है और अगर कहानियाँ इस ओर मुखर होकर अमरत्व चख लें तो मुहावरों में बदल जाते हैं। लेखनी का मुहावरों में बदलना कोई असाधारण घटना नहीं हो सकती । ` देखन में छोटन लगे घाव करे गंभीर’ बिहारी के दोहे की यह पंक्तियाँ देवी प्रसाद मिश्र के इस संग्रह ‘ मनुष्य होने के संस्मरण’ को सही अर्थों में परिभाषित करती है। बेधक और समयोचित छोटी-छोटी कहानियाँ या कहे गल्प आपके पाँव में काँटे की तरह गल्प धँसी रहती है। देवी प्रसाद मिश्र इन रचनाओं का सृजन करते हुए , कभी अद्वैतवादी तो कभी मध्यम मार्गी बन जाते हैं और वो मार्ग कवित्व पथ पर समयानुभव के छेनी हथौड़े से सृजित हो रहे हैं , दो पहाड़ को कविता के पुल से जोड़ने की कोशिश हो रही हैं और ऐसा करते हुए देवी किसी पहाड़ पर लालटेन भी जला रहे हैं । लिखते हुए लगता है अपने से अपने को थोड़ा- थोड़ा चुरा रहे हैं ताकि अंधेरा और रोशनी दोनों एक साथ क़ायम रहे। लोककथा के अनुगूँज बादलों के फाहे बनकर कहानीकार को गुदगुदी करे और फिर वन लाइनर्स की बारिश हो , ऐसा ही कुछ हुआ हो शायद लिखते समय। इसलिए देवी लिखते हैं ‘ भूल न जाऊँ इसलिए ज़ेहन में आई कहानियों

नरेन्द्र पुण्डरीक की किताब 'समय का अकेला' चेहरा पर यतीश कुमार की समीक्षा

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इस किताब को पढ़ते हुए मेरा मन एक बायस लिए है क्योंकि मुझे पुण्डरीक जी की वो कविताएँ बेहद पसंद है जो परिवार के इर्द गिर्द घूमती हैं । अब आगे देखा जाए मेरा पूर्वाग्रह टूटता है या बना रहता है ।   पहली कविता ` समय का अकेला चेहरा’ उनकी अपनी बनाई विश्वसनीयता पर खरी उतरती है जब पढ़ता हूँ :- ‘आदमी औरतों के लिए ही घर आते हैं ताई के न रहने पर ताऊ साल के 300 दिन घर के बाहर ही रहते उनके घर आने पर यह नहीं लगता कि वह घर आए हैं’   कुछ पंक्तियों में यह पढ़ते हुए रुक जाता हूँ कि :-   ‘जिन औरतों के बच्चे नहीं होते बच्चे पालने-पोसने का सबसे अधिक शऊर उन्हीं में दिखाई देता है!’   कविताएँ जो सीधे मन को छू ले सच्ची होती हैं , सच्चे मन से लिखी होती हैं। कृत्रिमता से परे पुण्डरीक जीवन से जुड़ी कविताएँ रचते हैं। सीधा- सच्चा कवि जब पूरी शालीनता से कड़वी बात कहता है तो , लगता है कि तमाचा जड़ दिया समाज के चेहरे पर। आप भी पढ़िए :- ‘इस देश का लोकतंत्र गौरैया चिड़िया की तरह है जिसका सीधापन सबको अच्छा लगता है।’ और इसी के साथ कवि को गौरैया के नीचे जाने की चिंता खाती रहती है। कव

शिवेंद्र के उपन्यास ‘चंचला चोर’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

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उदास शब्द थोड़े से नरम , थोड़े से गरम होते हैं। उनकी उदासी में दबी सी चिंगारियाँ होती हैं और उसकी तासीर चुभने वाली , जबकि साँसें बिल्कुल ठंडी। नेपथ्य में कुछ ऐसी कहानी बुनी हुई है और हम बस बिना रुके पढ़े जा रहे हैं। पढ़ते हुए लगता है कि लोग अलग और मसले एक , ग़ज़ब अनेकता में एकता है। कब्रिस्तान बनता जा रहा है शहर , कितने लोग ख़ुद के भीतर मरे पड़े हैं । अलग-अलग चेहरों पर व्यस्तता और जद्दोजहद की एक जैसी छाया है पर उन मुर्दों के बीच भी जो जिंदा है वह है उम्मीद , जिसके सहारे यह संसार अनवरत डेग भरे जा रहा है , उस उगते सूरज की ओर। लगता है अपनी लेखनी में शिवेन्द्र जैसे ख़ुद से बातें करते चलते हैं। गुलाब के पंखुड़ियों सी लेखनी में उदास मुस्कान सिमटी पड़ी है और मुस्कान की ओस भी ऐसे कि कभी-कभी सिहरा के डरा जाती है। कहानी सिगरेट की तरह सुलगती है , एक-एक पन्ना एक-एक कश की तरह अपने राख छोड़ती , तलब बढ़ाती। बड़ा दुष्कर काम है ऐसे लिखना जिसके कथ्य और शिल्प , समय में पलायन करते हुए अपनी परिभाषा ख़ुद गढ़ रहे हों। डायरी में समय रुका होता है जब चाहो जिस पन्ने को झांको उस समय में विचरण कर लो। शिवेन्द्

राजेन्द्र अवस्थी के उपन्यास 'जंगल के फूल' पर यतीश कुमार की काव्यात्मक समीक्षा

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1. दिन रोटी उगाता है और भूख सोखती है रात एक प्रेम है   जो बांधे रखता है सबको साथ -साथ जंगल में आदम और सुख   ठीक वैसे ही मिलते हैं जैसे चैन और चढ़ाई   वहाँ हवा चोट खाए सांप सी बिलखती है   भाग्य छाया बन तड़पती है होती है , पर साथ होकर भी साथ नहीं होती   जंगल में मृत्यु को भी   अंत में पत्थर बन जाना होता है और पत्थर की पूजा जारी रहती है   2. जब वह चलती   तब आंचल का छोर लपेटे हरे बांस की टहनी-सी   वह लहराते चलती प्रेम में कहानी सुनाता   तो वह स्वप्न देखती   और वह उसे यूँ देखते हुए देखता   जैसे टोंगी में लेटकर आसमान देख रहा हो   और तब वह उसे यूँ चाहती   जैसे चंचल नदी   पत्थरों से लिपटकर प्यार करती है   जैसे चाँद को झुलाकर   लहरों को संतोष मिलता है     चाँद की बात करने   और चाँद को जानने के बीच टहलती वो   ताउम्र शीशम की अमरबेल बनी रही   सूखी अमरबेल भी पेड़ का साथ नहीं छोड़ती यह जानती थी वह   पर उसे यह नहीं पता था   कि प्रेम सोखता है या सींचता है ?   3. पड़िया* प्रेम जतलाती है प्रेम पाप से कोसों दूर की भाषा रचता है   पर यहाँ महुआ कब चम्पा बन जाए   ख़ुद उसे भी नहीं पत