वरिष्ठ लेखक शरणकुमार लिम्बाले की आत्मकथा 'अक्करमाशी' पर यतीश कुमार की काव्यात्मक समीक्षा

1. जिन यादों को मन में कहने की इच्छा होती है वो हरी हो जाती हैं हरे ज़ख्म और हरे हो जाते हैं छितराती छाँव की तरह स्मृतियों की छाया मन की ज़मीन पर डोलती है डोलती छाया में तड़पता आदमी दिखता है सपनों में स्वर्ग दिखता है पर स्वर्ग से टूटी डोर का पता सबसे पहले सफ़ेद गिद्धों को चलता है 2. उस बस्ती की औरतें अच्छी लगती हैं रोटी नहीं माँ जब चक्की पीसती है तो चक्की की आवाज़ , माँ की गाती आवाज़ एकमय हो जाती हैं उसके यहाँ वह ऐसे रही जैसे किसी के शौक़ में कबूतर रहता है अपने आँवल को अब ढूँढ़ रहा हूँ पिता का नाम अंधकार है अंधकार की कोई आकृति नहीं होती उसमें आकृतियाँ विलीन होती हैं 3. पेट से सिर्फ हम नहीं जन्मते जन्मती है सप्त पाताल से गहरी भूख आदमी से बड़ी रोटी की तलाश लिए कोई गर्भपात की तरह भूख फेंक सकता है क्या ? जानवरों की गोठ-सी ज़िंदगी में भूख की कितनी जुगाली संभव है हम्माली ज़रिया है और फूँकी हुई बीड़ी ज़िंदगी मिट्टी की गीली ज़मीन में फर्श का एक टुकड़ा ज़िंदगी खाली पेट होटल में पानी भरने के बदले मिली एक कप चाय ज़िंदगी उत्खनन से प्राप्त मूर्ति के चेहरे पर फैली स्याह के बीच मींचती मुस्कान ज़िंदगी है जिसन...