वरिष्ठ पत्रकार सुभाष राय की किताब 'दिगम्बर विद्रोहिणी: अक्क महादेवी' पर यतीश कुमार की समीक्षा

12 वीं सदी का अद्वितीय कन्नड़ साहित्य और वीरशैव से निकली आंदोलित करती कविताएँ रचने वाली कवयित्री वचन साहित्य द्वारा बचायी गई ये कविताएँ, आज हम सब की पूँजी है। योगिनी-भैरवी-विद्रोहिणी केशांबरा की कविताएँ एक संत-भक्त कवि की कविताएँ हैं, जो अपने जीवन काल में ही मिथ बन गईं और जिन्हें विद्रोही के बदले दिव्य की श्रेणी में रखने की कवायद होती रही, उनकी कविताएँ भला कौन पढ़ना नहीं चाहेगा।

सुभाष राय ने इसे समेटने के लिए कन्नड़ से अंग्रेज़ी और फिर वहाँ लिखे कन्नड़ शब्दों के मौलिक अर्थ को खंगाला और हम तक पहुँचाने का असाधारण कार्य किया है, जो सच में किसी नयी रौशनी वाली क़ंदील की तरह आपसे रूबरू होगा। ऐतिहासिक वितान के साथ सुभाष ने यहाँ श्रमसाध्य शोधपूर्ण कार्य को प्रस्तुत करते समय, सजगता से स्त्रियों द्वारा की गई साहित्यिक व सांस्कृतिक गतिविधियों पर अपनी पैनी नज़र रखी है। चाहे अवइयार हों या कराइकल, अम्माइयार या फिर गार्गी, वाचकन्वी, सुलभा, लोपमुद्रा सभी का ज़िक्र संदर्भों के साथ किया गया है। थेरीगाथाएँ बचाने वाली स्त्रियाँ विमला, पदुमावती, अर्द्धकाशी और आम्रपाली हों या फिर कृष्ण प्रेम में डूबी आण्डाल या फिर शिव के प्रेम में घर से निकली कश्मीर की ललद्यद से ले कर कृष्ण प्रेम में दीवानी मीरा, सबका ज़िक्र किया है लेखक ने, अपनी इस किताब में। इन सभी स्त्रियों के विपुल साहित्य से गुजरते हुए सुभाष के मन की सुई अक्का महादेवी की कविताओं पर टिक जाती है और वो कविताओं के साथ-साथ उनकी ज़िंदगी, उनकी यात्रा की खोज में भी निकल पड़ते हैं।

चेतना के स्तर पर तो नहीं, पर देह के स्तर पर जो भिन्नता स्त्री पुरुष में है, उसे लेखक की दृष्टि परख कर समझने की कोशिश कर रही है और फिर इस परखने की स्थिति में प्रश्न उठता है स्त्री की स्वयं चुनी हुई नग्नता के पीछे कौन सी मानसिकता, कौन सा कारण हो सकता है? वह भी समय के उस काल में जब स्त्री-देह को ले कर समाज की अपनी सोच कितनी भोथरी रही है। यहाँ नग्नता को विक्षिप्तता माना गया। महादेवी ने इस पूरी धारणा को ध्वस्त कर दिया, अध्यात्म प्रेम में डूबते हुए देह से अदेह की यात्रा पूरी की। विराग और अनासक्ति का यह रूप इतनी आसानी से तो नहीं स्वीकार किया गया होगा। यहाँ अक्क महादेवी को वीरशैव आंदोलन से अलग कर के देखना संभव नहीं, ऐसा सुभाष राय भी कहते हैं।

बोम्मय्या और महादेवी का आमना-सामना इस स्थिति पर पूरी तरह रौशनी डालते हुए साफ़ कर देता है कि अक्क अपनी नग्नता को किस रूप में लेती थीं। कदलीवन को भेदना उन्हीं के वश में है। यह किताब एक-एक कर अल्लम प्रभु और अक्क महादेवी संवाद के माध्यम से देह के परे आत्ममिलन, शिव मिलन पर अपनी बात रखती है। उन सवाल-जवाबों से साफ़ होता है कि देह और आत्मा का अंतर क्या है। दीप और दीप्ति में क्या फ़र्क़ है, साकार और निराकार के बीच की दूरी कैसी है। यहाँ बुद्ध की एक बात याद आती है कि काम को जीतना, मन के सारे शत्रुओं को जीतना है।


मैं प्रेम में हूँ, मत कहो कि देह में हूँ।”
यह एक पंक्ति ऊपर लिखे सारे प्रश्नों का उत्तर दे देती है।

वीरशैव आंदोलन में 60 से ज़्यादा स्त्रियों का रचनारत होना वचन शैली का व्यापक प्रभाव दर्शाता है। इन वचनों में स्त्री की सही मुक्ति आज़ादी की गूँज है, जहाँ इसके साथ जाति भेद पर भी प्रहार दिखता है। बसवन्ना की सामाजिक क्रांति ने भी इस विद्रोह को बल दिया।

लेखक ने इस बात पर भी बल दिया है कि अक्क महादेवी किसी शास्त्र पुराण को नहीं मानती थीं। वे अपना रास्ता स्वयं बनाती हैं। कविताएँ रचती हैं। अपने भीतर लौ जलाती हैं, जिसके उजास में शिव के साथ शिवत्व को ढूँढ़ती हैं। बुद्ध का एक स्वर वहाँ बजता रहता है कि अपने दीपक स्वयं बनो। करुणा को धर्म मानती हैं। शून्य पर, अल्लम और गोरख के आपसी जिरह के माध्यम से, बहुत विस्तार से क्रमबद्ध समझाया गया है। शून्य यानि नथिंगनेस, वॉइड, एंप्टीनेस सब का मतलब कुछ नहीं होते हुए भी कुछ है, जिसका मतलब आत्मा से है अविभाजित पूर्ण से है। अचंभित करने वाली बात है कि यह सब ख्याति उन्होंने अल्प आयु में ही प्राप्त की। 30 साल का जीवन कितना कम है, अदेह की यात्रा तय करने के लिए। लेखक पर उनका जादू चलता है और उनका कवि पक्ष महादेवी के वचन संसार के आविर्भाव से जन्मी कविताओं को रचने लगता है, अनुवाद भी करने लगता है। इन अनूदित कविताओं से गुजरते समय लगता है जैसे विरह में उठी आर्तनाद हो।

शिव उनका सपना है और अपने भीतर ही उस सपने का पीछा करती हैं। कवि उनकी भावनाओं को अपने शब्द दे रहा है।

शिव को छोड़ नहीं सकती मैं
वह मेरे मन में रहता है

व्यक्तिगत राय है कि अनूदित कविताओं से बेहतर मुझे आविर्भाव से जन्मी कविताएँ लगी। भाव संप्रेषित और सुंदर हो उठा है। वेदना से ज़्यादा दर्शन भरी कविताएँ हैं छाया कविताओं में। कवि लिखता है -

चिड़ियों को झूठ बोलना नहीं आता…
वे सच बोलेंगी और मेरे कन्धों पर
पंख उग आएँगे।

असंभव को प्यार करते हुए असंभव में खो जाने की इच्छा को रचता है कवि और लिखता है-
इसमें कोई दरवाज़ा नहीं
कोई खिड़की नहीं
कोई छत, कोई दीवार नहीं
हर रास्ता मृत्यु से हो कर जाता है
प्रेम के लिए।

फिर आगे इसी बात को अलग तरीक़े से लिखते है, क्योंकि रास्ता वही है, मंज़िल वही है, जाना वहीं है वो भी वहीं है -

और न कोई राह बची है
जीते-जी मर जाना होगा
विकट पंथ है, प्रेम किया तो
केवल मिट कर जाना होगा

महादेवी की यह यात्रा अजस्त्र प्रेम की खोज की यात्रा है। इसी यात्रा में कलुष मिट गया और प्रेम उनका कवच बन गया जिसे लेखक अपने शब्दों में कहता है -

मत समझना मैं नंगी हूँ
मैं सूर्य को पहने हुई हूँ

भस्म राग की धुन पकड़ कर कवि महादेवी की संवेदनाओं को अपने शब्दों में बाँधने की कोशिश में पंक्तियाँ लिखता है -

उसके पास आते ही मैं पिघल कर
बह गई उसके भीतर।

समालोचन
, काव्यानुवाद और छाया-कविताएँ, जिसे मैंने आविर्भाव भी कहा है, यह सब एक ही किताब में पढ़ने को उपलब्ध है, जिसके केंद्र में है विद्रोहिणी अक्क महादेवी। किताब को पढ़ते हुए आपको दक्षिण में उठे भक्तिकाल की झलक भी मिलती है, जिसे लेखक ने बुद्ध और कबीर की दृष्टि से भी अपना तुलनात्मक पक्ष रखा है।

यह किताब महादेवी को समझने और जानने का एक अच्छा माध्यम बन पड़ा है, जिसमें लेखक का शोधात्मक अध्ययन साफ़ झलकता है। संदर्भों की भारी संख्याओं से साफ़ प्रतीत होता है कि लेखक ने कितना श्रमसाध्य काम किया है, उस विषय पर जिसमें हिन्दी में अब तक चार से पाँच लोगों का काम ही दिखता है और उसी कड़ी को आगे ले जाती इस किताब के लिए विशेष बधाई के पात्र हैं। सुभाष राय और सेतु प्रकाशन ऐसे कार्य करते रहें और किताबें हम पाठकों को मिलती रहें, जिससे अलग भाषाओं और क्षेत्रों के साहित्यिक संसार का सुंदर दरवाज़ा हिन्दी की ओर खुलता रहे।

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