विनय सौरभ के काव्य-संग्रह ‘बख़्तियारपुर’ पर यतीश कुमार की समीक्षा
प्रेम के विविध रंगों को
समझने निकला, कवि वैधनाथ का दोहा करने वाला लड़का असल में प्रेम को नहीं अपनी स्मृतियों
को खोजने निकला है। उसकी स्मृति में उसका कस्बा बनता गाँव, पिता,
माँ, मौसी, बहनें,
दोस्त या एक शब्द में कहूँ तो `रिश्ते'
हैं। मुझे जाते हुए लोगों की चित्रकारी करता हुआ उसका स्ट्रोक्स,
कील गाड़ने जैसा लगता है। टू डायमेंशनल जब ट्री डाइमेंशनल हो जाये
तब हाथों की स्मित और आँख में तीरता दृश्य डूबती नाव का चित्रण कर रहे होते हैं और
ऐसे दृश्य सच में बहुत रुलाते हैं।
स्मृतियों में प्रार्थनाएं
हैं, हम्द का
लोबान है, जिसकी ख़ुशबू में तिरती पंक्तियों से विनय कविता
रचता है और कह देता है, ईश्वर से ज़्यादा मेरे बारे में सोचा
माँ ने। क़िस्सों की ख़ुशबू से लिपटी मुलायम कविताएँ अक्सर पढ़ते हुए नम कर देंगी
आपकी आँखें। कविता भीतर कुछ टपका देती है और फिर धीरे-धीरे लेमनचूस की तरह घुलने
का स्वाद आता रहता है।
कहकहों का घर से जाना
दरअसल पिता का जाना है। कविता में पिता की एक कमीज फ़क़ीर को दे दी जाती है और
दूसरी खूँटी पर रखी है। जीवन का दर्शन यहीं से आता है।
मानवीय ऊष्मा का संगीत
सुनाती कविता को पढ़ते हुए, विनय के हस्ताक्षर पढ़ते हुए आप को दिखेंगे। ऐसे कवि कम ही
हैं, जिनकी कविताओं की शैली से उनके नाम का पता मिलता है। इस
किताब को पढ़ने के बाद आपको विनय उस शैली के, आज के कवि
लगेंगे।
यहाँ बीच-बीच में कटाक्ष
के नश्तर भी हैं। शहर की पकड़ में छटपटाती गाँव की दास्तान दर्ज है। डॉक्टर,
अस्पताल यहाँ गाँव की वे सारी बातें हैं, जिन्हें
हम भूलने की कगार पर खड़े हैं। उन प्रश्नों को फिर से उठाया गया है, जिन्हें हम अपनी आपाधापी में भूल गए हैं, जो अक्सर
हमारी रोजमर्रा की गहमा-गहमी का हिस्सा हुआ करती थीं। चाहे बात उन अकेली-दुकेली
औरतों का हो, जो गाँव में भी अकेले रहना चुनती थीं, जिनकी ओर हमारी नज़र तिरछी हो जाया करती हैं। विनय की कविताएँ खोयी हुई
ब्लैक एण्ड व्हाइट फोटो की तरह हैं, जो कहीं किसी दराज़ के
घुप अंधेरे में बंद है और आज जिसकी चाबी बन गई हैं ये कविताएँ। पतंग और आदमी की
हालत एक सी है। उड़ने की चाह में कब कट जाती हैं पता नहीं चलता। इस दर्शन भाव को
एक अलग खिड़की से खोलकर दिखाते हैं विनय ‘पतंग भी उसी की है‘ कविता में।
कविता में खूब बातचीत की
शैली है, पता ही
नहीं चलता कि इस रोज़मर्रा की बातचीत में कब चुपके से जीवन की सीख अपने संपूर्ण
दर्शन भाव के साथ उग आते हैं जैसे अभी-अभी सूरज उगा है पंक्तियों के बीच से। ये
कुछ ऐसा है जैसे रोज सूरज उगता है, पर कभी-कभी उस पर टंग
जाती हैं अपनी आँखें।
शहर से लौटते हुए दोस्त की
दास्तान है यहाँ। दोस्त आपस में बात करते-करते जमाने भर की बात कर देते हैं, इन
कविताओं में। लोक धुन की स्मृति उसे बेईमान होने से बचाती है। गुम होते डाकिये और
नहीं आती चिट्ठी को याद करता कवि, किताबों की घटती इस दुनिया
में जिल्दसाज़ की घटती छाया से परेशान है। धूल लगी स्मृतियों को फूँकता है जब,
थोड़ी धूल और उड़ जाती है। वह कवि है, जो
उड़ती धूल में आज के यथार्थ को दिखाता है। जिस धूल में धुँधलाता है जिल्दसाज़ के
अफ़सोस के साथ फोटो स्टूडियो वाले बाबा का दर्द। इन सबका आयतन घटता चला गया समय की
अपनी परिधि से ही। ख़ान बाबा बहुरूपिया का भूला रूप याद करता है कवि, उनके शिव बनने पर आज क्या होता इसे याद दिलाता है कवि, ताड़ के पंखों की हवा याद आती है, पर पंखें नहीं
दिखते कहीं। नोनीहाट, भागलपुर, गिरिडीह
के साथ पुरानी खाट को भी याद करता है,माने कि अपने बचपन को
याद करता है, माने कि आदमी के भीतर मरते बचपन को याद करता है,
पाँत में खाये सामूहिकता के गीत गाते भोज को याद करता है, माने कि आज अपने शहर की आत्मा को मरते देखने की टीस की बात करता है।
स्वीकारोक्ति का भाव है, की गई
ग़लती की माफ़ी माँगने का उल्लेख भी, आत्मग्लानि के पत्थर का
सीने में घिसने की आवाज़ है और बख़्तियारपुर गुजर जाने के अपराधबोध में विवशता का
दुर्लभ रूप भी!
अंत में इतना कहना जरुर
चाहूँगा कि इस किताब की 'पुल' शीर्षक कविता जैसे इस पूरी किताब का
जोड़ है। एक अकेला फूल जो सबकी ख़ुशबू को समेटे है जिसे पढ़ते हुए केदारनाथ सिंह की कविता ‘हाथ’ की याद आ
गई-
“उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए
मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर
होना चाहिए।”
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