Posts

Showing posts from April, 2024

लोकप्रिय कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ के कहानी संग्रह ‘वन्या’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

Image
इस किताब की भूमिका पढ़ते समय दो लेखकों , संजीव और राजेंद्र अवस्थी का स्मरण हो आया। दोनों की किताबों पर कविताई हुई है कभी। पहली किताब ‘ जंगल जहाँ शुरू होता है’ और दूसरी किताब ‘ जंगल के फूल’। इन दोनों किताबों में लेखक ने जंगल को जिया है। इसके दर्द को शिद्दत से महसूस किया है और यहाँ मनीषा की कलम से निकलकर वही दर्द अपनी शक्ल बदल कर नार्थ ईस्ट और रेगिस्तान के जंगलों में घूमता फिरता मिल रहा है , रूबरू हो रहा है। ‘ नर्सरी’ कहानी में ‘ शुक्र तारा’ , जो चंद्रमा के बाद रात्रि में आकाश का सबसे चमकीला तारा है , एक रूपक की तरह मिलता है। चाय बाग़ान अपनी कड़वी सच्चाई कह रहा है कि जंगल को चाय बाग़ान खा रहे हैं। यहाँ यह सब देख रहा है गेंद , पर असल में यह गेंद नहीं लेखिका का मन है , जो बेचैन है। उसकी बेचैनी के केंद्र में है चाय बाग़ान का जीवन। गेंद , ऊपर आकाश में , बड़ी गेंद माने चाँद को देखती है और बच्चों की आँखों में बदलते चाँद की तस्वीर को। लगता है गेंद नहीं समय की आँख है , जो एक महल से निकल कर जंगल में उन्मुक्तता को ताके जा रही है। एक मूक द्रष्टा चाय के पूरे बाग़ान के हर कोने का मुआयना कर रहा है ,

न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से प्रकाशित एवं वरिष्ठ कवि हरगोविंद पुरी पर केंद्रित काव्य-संग्रह ‘चयनित कविताएँ’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

Image
अब तक चौरासी रचनाकारों को समकाल की आवाज़ श्रृंखला के तहत न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ने छापा है। यह एक मुहिम की तरह पाठकों को अच्छी रचना तक पहुँचाने का सराहनीय प्रयास है। इसी श्रृंखला   की कड़ी में हम सब के लिए हरगोविंद पुरी की कविताओं का संकलन प्रस्तुत है। यह प्रयास एक पूरे काल को बचाने का प्रयास भी समझा जा सकता है। समकालीन हिन्दी कविता जिस तरह हाशिये की आवाज है ठीक उसी प्रकार समाज और समय को प्रतिबिंबित करते हुए लिखी रचनाओं के माध्यम के साथ हाशिये पर पड़ी गहराई भरी अभिव्यक्ति को भी यहाँ संकलित किया गया है। कवि को चरवाहे का टिटकारना याद है – बुद्ध की बातों में पहली बात बच्चों से सजगता की करने वाले हरगोविंद एक सजग कवि हैं। मूर्त और अमूर्त के मानवीकरण पर विश्वास रखता यह कवि सजगता को न केवल समझता है बल्कि स्वयं यह स्वीकार भी करता है कि कविता में बेहतर मनुष्य बनना   निहित है। कवि इसी मनुष्यत्व में जिजीविषा के निहितार्थ को अपनी कविता में उकेरता है और लिखता है “वे ज़िंदा रहे वर्षों तक कुचली जाने वाली घास की तरह” और इसी पंक्ति का विस्तार आगे करते हुए कवि कहता है “उनका ज़िंदा रहना बच जाना है

लेखक-पत्रकार गीताश्री के उपन्यास ‘सामा चकवा’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

Image
  इस उपन्यास में शुरू से केंद्र में न कृष्ण हैं न सामा , यहाँ केंद्र बिंदु है वन। जामवंती का वन , सामा का वन। सारी कहानी बहुत ही रोचकता से बुनी गई है पर हर बार लौटकर आती है , वन संरक्षण और प्राकृतिक संतुलन पर। भाषा और कथ्य में गीता श्री ने बहुत संतुलन बनाये रखा है और दोनों बिल्कुल कथा के अनुसार हैं। मसलन एक जगह लिखा है- “ पत्तों पर बारिश की बूँदे नहीं चिड़िया के आँसू हैं।” इसके आगे भी- “ जंगल जलाने के लिए राक्षस पैदा किए जा सकते हैं , जंगल उगाने के लिए ताक़तें नहीं खोजी जा सकती । ” या फिर “ पेड़ काटना मनुष्य हत्या के समान है।” रह-रह कर संवाद में संदेश छिपा है , जिसे पढ़ते समय आप महसूस करेंगे और आपको लगेगा जैसे कोई वातावरणविद कथा बाँच रहा हो। जगह-जगह पर श्लोक का प्रयोग किया गया है , जो छोटी-छोटी कहानियों को जोड़ते हुए अंत में उपन्यास को रोचक तथ्यों से जोड़ने का काम करता है। आखेट-अहेर को लेकर जामवंती और कृष्ण के संवाद बहुत महत्वपूर्ण हैं , जिनके केंद्र में वन जीवन की रक्षा है। अभी तक हम राधा , सत्यभामा और रुक्मणी पर केंद्रित कहानियाँ पढ़ते-सुनते आ रहे हैं , पर गीता श्री की कहा

वरिष्ठ पत्रकार सुभाष राय की किताब 'दिगम्बर विद्रोहिणी: अक्क महादेवी' पर यतीश कुमार की समीक्षा

Image
12 वीं सदी का अद्वितीय कन्नड़ साहित्य और वीरशैव से निकली आंदोलित करती कविताएँ रचने वाली कवयित्री वचन साहित्य द्वारा बचायी गई ये कविताएँ , आज हम सब की पूँजी है। योगिनी-भैरवी-विद्रोहिणी केशांबरा की कविताएँ एक संत-भक्त कवि की कविताएँ हैं , जो अपने जीवन काल में ही मिथ बन गईं और जिन्हें विद्रोही के बदले दिव्य की श्रेणी में रखने की कवायद होती रही , उनकी कविताएँ भला कौन पढ़ना नहीं चाहेगा। सुभाष राय ने इसे समेटने के लिए कन्नड़ से अंग्रेज़ी और फिर वहाँ लिखे कन्नड़ शब्दों के मौलिक अर्थ को खंगाला और हम तक पहुँचाने का असाधारण कार्य किया है , जो सच में किसी नयी रौशनी वाली क़ंदील की तरह आपसे रूबरू होगा। ऐतिहासिक वितान के साथ सुभाष ने यहाँ श्रमसाध्य शोधपूर्ण कार्य को प्रस्तुत करते समय , सजगता से स्त्रियों द्वारा की गई साहित्यिक व सांस्कृतिक गतिविधियों पर अपनी पैनी नज़र रखी है। चाहे अवइयार हों या कराइकल , अम्माइयार या फिर गार्गी , वाचकन्वी , सुलभा , लोपमुद्रा सभी का ज़िक्र संदर्भों के साथ किया गया है। थेरीगाथाएँ बचाने वाली स्त्रियाँ विमला , पदुमावती , अर्द्धकाशी और आम्रपाली हों या फिर कृष्ण प्रेम मे

प्रतिष्ठित कहानीकार मनोज कुमार पांडेय के कहानी संग्रह ‘पानी’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

Image
कहानी पर अपनी बात कहने से पहले यह कहना चाहूँगा कि इस कहानी संग्रह में मनोज जी की जो तस्वीर है बहुत मोहक है , निश्छल है। लगभग सफ़ेद खाली पन्ना है , जो कई रंगों में नहाने को बेताब दिख रहा है और इसी बेताबी की तड़प में शायद लिखी गई होंगी ये कहानियाँ , जिनसे रू-ब-रू होने जा रहा हूँ। वैयक्तिकता से सामूहिकता , आपबीती से पर-बीती जैसी लिखी गई कहानियों का गुच्छा मिला यहाँ , जहाँ लिखा है “हम मौत को तड़ी मारते हैं और ज़िंदगी के इलाक़े में निकल जाते हैं।” बिछलाने वाली कहानियाँ हैं , जबकि संवाद रोकने वाले। एक जगह लिखा है :- “डालें ऐसी लग रही थीं जैसे पेड़ के हाथों की उँगलियाँ काट ली गयी हों।” ` जींस’ कहानी पढ़कर यही लगा कि एक अलग क्राफ़्ट है मनोज का। ऐसा ही समानांतर क्राफ्ट शिवेंद्र के ' चंचला चोर ' को पढ़ते हुए दिखा था। यहाँ क्राफ्ट कहने से मेरा तत्पर्य दुःख और मर्म की थिगली की परतें रचने और फिर उन्हें उघाड़ने से है। ' जींस ' कहानी में रूपकों की झड़ी है। नीम का पेड़ , जींस ख़ुद , वो बड़ा आइना , या वह काला गड्ढा , जिसमें अपनी ननद को अंतिम नींद में सुला आती है दादी या उसी गढ्ढे के आ