यतीश कुमार के संस्मरण संग्रह ‘बोरसी भर आँच’ पर वरिष्ठ कथाकार उषा प्रियंवदा की टिप्पणी

यतीश कुमार के संस्मरण संग्रह बोरसी भर आँच पर पंकज सुबीर का प्रोग्राम देखा। उन्होंने सचमुच इस पुस्तक का मर्म समझ लिया। उनका यह कथन भी सही है कि इस पुस्तक को दो बार पढ़ना चाहिए। पहली बार पढ़ी एक रफ़्तार से, डूब कर, अब दोबारा पढ़नी है, जैसे कि एक पसंदीदा गीत को दोबारा सुनना। पहले सुर बाद में पूरा संगीत।

किताब बोरसी भर आँचजो लेखक को ऊर्जा तो देती ही  है और अपने वंचित बाल जीवन को दोबारा मुड़ कर देखने को प्रेरित भी करती है, केवल एक संस्मरण या जीवनी नहीं है,वयस्क हो कर उस अतीत का पुनः निरीक्षण और समाज की मान्यताओं पर सटीक टिप्पणी भी है। अक्सर लोग जीवन की प्रवंचनाओं को गले में हार डाल कर पहन लेते हैं, परंतु उस विगत में जाना, वयस्क और समर्थ होकर उन बातों और अपने को तोलना और फिर उन्हें तटस्थ भाव से प्रस्तुत करना उस जीवन का पुनः मूल्यांकन करना है, जिसे यतीश कुमार एक सहृदय कवि की दृष्टि से देखते, तोलते और सम्पादन करने के बाद ऐसे प्रस्तुत करते हैं जिसमें एक बालक की अबोध दृष्टि और कवि की समवेदना भी है।

अध्याय के पहले एक वयस्क अपने बचपन को देखता और तोलता है और फिर ऐसी ईमानदारी सेलिखता है , कि  पाठक, कम से कम मैं अभिभूत और अवाक रह जाती हूँ।

यतीश कुमार के बचपन की नदी, पोखर और अस्पताली माहौल हृदय को छू  लेते हैं, साथ में उनकी माँ की उदारता और कर्मठता, उनकी दिदिया का अटूट स्नेह और ढाल बन कर खड़ा रहना भी एक उदाहरण  की तरह सामने आता है।

जब पंकज सुबीर ने कहा कि उनके और यतीश कुमार के बचपन में समानताएँ हैं तो एक बात जो  मेरे ज़ेहन  में उभर कर आयी कि  हमारे समाज में लड़कियों के बालपन की प्रवंचनाएँ कम से कम मेरे अनुसार कितनी अलग हैं। क्योंकि मेरा बचपन भी तिरस्कृत और प्रवंचित रहा है, बोरसी भर आँच ने मुझे फिर उसी प्रयत्न से भुलाए गए अतीत में धकेल दिया। तब के  समाज में एक बालक और एक बच्ची के जीवन में कितना अंतर होता था बचपन की शैतानियाँ, स्कूल से लौट कर, बस्ता  फेंक कर पोखर में कूद जाना, सिंघाड़ों की चोरी, छिपाए हुए अमरूदों को लूटना, ट्रक के पीछे लटकना, यह सब मेरे जीवन में कल्पनातीत था। बचपन में ही पुरुषों की लोलुप दृष्टि से हमारी रक्षा करना स्कूल और घर का मुख्य कर्तव्य था। ग्यारह साल की उम्र में स्कूल जाने के लिए एक लकड़ी का बक्सा नुमा होता था जिसके अंदर दो बेंचो पर हम चार पाँच लड़कियाँ बैठते थे, चारों ओर एक मोटा पर्दा होता था और एक प्रौढ़ स्त्री जिसका काम हमें उस गाड़ी से उतर कर घर के अंदर तक पहुँचना होता था। घर में मिलती थीं, एक कठोर  दृष्टि वाली चचेरी दादी और कम उम्र में वैधव्य की मारी असहाय माँ। ज़मींदार की बेटी होने के कारण उनकी पढ़ाई स्कूल में न होकर घर में हुई थी और जीविका साधन का कोई रास्ता उनके पास नहीं था। तब भी उनकी सारी आशाएँ मुझ पर केंद्रित थी, और परिस्तिथियों से संघर्ष करना मैंने तभी से सीखा। कभी  पोखर में तैरने या उस तरह की शैतानियाँ करने का अवसर हमें कभी नहीं मिला। न कवि की समवेदनशील दृष्टि।

बोरसी भर आँच कितनी राहत पहुँचा ती है यह वही जान सकते हैं जिन्होंने अपने हाथ उस आँच में गरम किए हों। इस पुस्तक का यह एकदम उपयुक्त शीर्षक है। यतीश कुमार का आगे का लेखन पढ़ने की उत्सुकता बनी रहेगी और इस पुस्तक के लेखन के लिए वह बधाई के पात्र हैं।

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