वरिष्ठ चित्रकार-कवि वाज़दा ख़ान के कविता संग्रह ‘खड़िया’ पर यतीश कुमार की समीक्षा
एक चित्र हजारों शब्द को बयां करता है और भावनाओं को प्रस्तुत करता है। किसी का हाथ साहित्य और कला दोनों ही विधाओं में बराबर सधा हो तो इसे विरल संयोग ही कहा जाएगा। कवि-चित्रकार वाज़दा को पढ़ते हुए ऐसा बार-बार लगता है जैसे रंगों से एक लंबी बात-चीत का फ़लसफ़ा टुकड़ों में दर्ज है। रंगों का दर्शन बोध , उसकी व्यापकता और आपकी जिंदगी में उसकी अहमियत सब कविता में रची-बसी मिलती है। स्याह अंधेरा को रंगीन स्याही में घोल वह कविता में उतारती हैं- अंधेरे का अर्थ , लाल भी हो सकता है जो हमारी देह की , अंधेरी शिराओं में बहता है बरतते हैं उसे जब हम उजाले में तब सही सही पहचान पाते हैं सिलती ख़्वाहिशों के लिए चिंतित कवि , मन के सुरंग में झांकती हैं , उन्मुक्त आकाश में उड़ने को कहती हैं और क़ैद संवेदनाओं को छू कर आजाद कर देना चाहती है। वह कविताओं के ज़रिए उन कोटरों को खोज रही हैं जहां मन का कबूतर बेचैन चुप्पी ओढ़े लुढ़का पड़ा है। वाज़दा बेचैनियों को चैन देने और उन्हें आकाश देने की बात करती हैं। ‘ खड़िया’ शीर्षक कविता की ये महज पाँच पंक्तियों कितनी व्यापकता समेटे है- इक लम्बी काली रात इक सु