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Showing posts from May, 2024

यतीश कुमार के संस्मरण संग्रह ‘बोरसी भर आँच’ पर लेखिका सीमा संगसार की पाठकीय टिप्पणी

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  ज़िन्दगी की आंच में इतनी तपन होती है कि इंसान ताउम्र उसमें जलता रहता है और जब वह अपने अतीत में लौटता है तो वह धीमी आंच जो सुलगना भूल गई थी , एक बार फिर से भुकभुका कर जलने लगती है । यतीश कुमार जी का अतीत का सैरबीन कुछ ऐसा ही दहका देने वाली स्मृतियां है , जिसकी आंच में एक लेखक ही नहीं हम सब तप रहे होते हैं । इस किताब को मैं न तो आत्मकथा कहूंगी और न ही संस्मरण यह एक ऐसी यात्रा है जिसके सफर पर हम जैसे न जाने कितने हमसफर हैं जो इसकी तासीर को अच्छी तरह समझते हैं। अस्सी - नब्बे के दशक का वह अंधकारमय बिहार और उससे जुड़ी यादें जो लगभग भूल ही गई थी , इस पुस्तक को पढ़ते वक्त एकबारगी नजर से कौंध गया। जातिवाद , नक्सलवाद की आग में झुलसा हुआ वह बिहार तब रहने और जीने लायक नहीं सजायाफ्ता कैदी की तरह काटने लायक था। चोरी , डकैती , अपहरण , बलात्कार , छिनतई और न जाने कौन कौन से अपराध दिन के उजाले में सीना जोड़ी कर किए जाते थे। महज इसलिए कि प्रकाश सिंह और अशोक सम्राट जैसे कुछ नाम थे जो उन दिनों ट्रेंड में थे और बाकी सब गौण थे। मेरा बचपन भी अमूमन इसी माहौल में बीता लेकिन पापा चूंकि स्टेट बैंक में अधिकार

चर्चित लेखिका शैलजा पाठक की किताब ‘कमाल की औरतें’ पर यतीश कुमार की समीक्षा

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इस किताब को पढ़ने के लिए हाथ लगाया ही था कि कवि के नाम ने ही पहले पकड़ लिया और मेरा ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया , जबकि इस नाम से कितने सालों से वाक़िफ़ हूँ , पर ध्यान इस किताब ने दिलवाया। इसके साधारणतः दो मायने निकलते हैं , पहाड़ों की बेटी पार्वती और जो मुझे ज़्यादा उचित लगा वह है , नदी। स्त्री के पूरे वर्ग का प्रतिनिधित्व करने के लिए नदी से बेहतर दूसरा कोई विकल्प नहीं। ‘ कमाल की औरतें’ शीर्षक से ही लगता है , अभी कितने मन को पढ़ने जा रहा हूँ , कितने दर्द से रू-ब-रू होने जा रहा हूँ , अनेकों दर्द की जीत को समझने जा रहा हूँ। पहचानने और जानने के बीच कुछ यक्ष प्रश्न हैं। यहाँ इन्हीं प्रश्नों का उत्तर ढूँढने की ज़िद है। ज़िद है कूक और हूक के अंतर को समझाने की। अपनी सही मिट्टी की तलाश में हैं कविताएँ। हर कविता एक तीखे   सवाल की तरह है , जिसके हल , आश्वासन की शक्ल में , चित्रित करती मिलती हैं शैलजा। अम्मा की बात जब भी करती हैं हिदायतें उसका प्रमुख स्वर बन जाती हैं। इन हिदायतों में सहानुभूति नहीं प्रोत्साहन के स्वर हैं। सकारात्मक स्वर कविताओं के नेपथ्य का स्वर हैं , जो एक ईको की तरह हर कवित

यतीश कुमार के संस्मरण संग्रह ‘बोरसी भर आँच’ पर वरिष्ठ पत्रकार-लेखक राजीव सक्सेना की टिप्पणी

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एक प्रेरक फ़िल्म की संभावनाओं से लबरेज़ आपबीती है ‘ बोरसी भर आँच ’ जीवन के नैपथ्य की सपाटबयानी है यतीश कुमार जी की किताब ‘ बोरसी भर आँच ’ । राधाकृष्ण प्रकाशन की सम्भवतः ये पहली ही किताब होगी , जिस पर डेढ़ महीने मात्र में जितना लिखा गया, पाठकों की टिप्पणी , समीक्षा या चर्चा बतौर , उसे अन्य के मद्देनज़र कीर्तिमान बनने के नजदीक कहना ज़्यादती नहीं होगी। तीन वर्ष के सतत संवाद और तीन महीने के सानिध्य में यतीश कुमार जी के सृजन से अधिक बतौर इंसान उन्हें ‘ पढ़ने ’ में सफल रहा हूँ। अतीत की तपिश से झुलसने या पथविमुख होने की बजाय कोई सोने की तरह निखरे और ' इंसान ' बन जाये इससे बड़ी उपलब्धि और भला क्या। ‘ बोरसी भर आँच ’ के शीर्षक में प्रयुक्त ‘ बोरसी ’ से लेकर , किताब के पन्ने-पन्ने, किस्सों , संस्मरणों पर तमाम लोगों की प्रतिक्रियाओं के बाद कुछ लिखना , लगभग दोहराव और शब्दों की जुगाली ही कहलायेगा। फिर भी जरूर लिखना चाहूंगा जल्दी ही किसी राष्ट्रीय अखबार या पत्रिका के लिए। लिखने से ज्यादा ‘ कीड़ा ’ सिनेमा का है तो उस दृष्टि से यतीश जी की किताब ही नहीं , पूरा व्यक्तित्व ही एक अच्छी पटकथा की सम्भ

यतीश कुमार के संस्मरण संग्रह ‘बोरसी भर आँच’ पर बहुचर्चित लेखक देवेश की टिप्पणी

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  यह कहानी है एक ऐसे बच्चे की जिसका जीवन घनीभूत पीड़ाओं से घिरा रहा। किताब के प्रारंभ में जिन भावनात्मक घावों का ज़िक्र है , उनको जान लेने के बाद अंत में (और कितने करीब में) वर्णित जानलेवा अनुभव कमतर लगने लगते हैं। करंट और बीमारी से उबरना आसान है लेकिन जीवन की विद्रूपताओं का सामना करके यतीश कुमार बनना दुर्लभ है। यह एक ऐसा संस्मरण है जो लंबे समय तक चर्चा में रहेगा। अपने सघन अनुभवों और उनको पेश करने की अद्भुत भाषा शैली के कारण। हर अध्याय का प्रारंभ और अंत कविता/ग़ज़ल की किसी पंक्ति से किया गया है. बशीर बद्र का ये शेर कितना सटीक है- ‘ ये फूल मुझे कोई विरासत में मिले हैं , तुमने मेरा काँटों भरा बिस्तर नहीं देखा।। ’ ‘ बोरसी भर आँच ’ को पढ़ा जाना चाहिए और निराशा के क्षण जब-जब जीवन में आएं तब-तब पढ़ा जाना चाहिए। ‘ दो बारिशों के बीच कितना बड़ा हो जाता है आदमी ’ - आँसू से यतीश बनने के लिए कितने झंझावात सहता है आदमी... जो सह गया वो बन गया। यतीश  जी को बहुत बधाई इस किताब के लिए।  

यतीश कुमार के संस्मरण संग्रह ‘बोरसी भर आँच’ पर कवि एवं साहित्यधर्मी अंकुश कुमार की समीक्षा

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  किताबों के बारे में मेरी आमतौर पर यही राय है कि वे आपको कई बार कुछ ऐसा दे ही जाती हैं जिसके बारे में आपने सोचा भी न हो‌। मसलन वह चाहे वाक्य विन्यास हो , सरलता हो या तारतम्यता। अगर कुछ न भी मिले तो यह भी बता जाती है कि हर तरह की किताबें पढ़नी चाहिए ताकि हमें पता चलता रहे कि क्या हमारे लिए रुचिकर हो सकता है क्या नहीं। पिछले दिनों ' बोरसी भर आँच ' पढ़ी। पढ़कर कई जगह लगा कि क्या यह जो लिखा है वह सच है ? क्या वाकई यह सब घटित हुआ है ? और तिस पर उस हुए को लिखने की हिम्मत चकित करती है‌। यतीश जी की किताब बोरसी भर आँच ने मुझे कई जगहों पर वह हिम्मत दी जिसके सहारे मैं भी शायद कुछ पहलुओं को अपने किसी रचनाकर्म में उतार सकूँ। बोरसी भर आँच आत्मकथात्मक आख्यान है उस सबका जो यतीश जी के जीवन में घटित हुआ। मैं कुछेक जगहों पर चकित हुआ , कुछ जगहों पर भावुक और कुछेक जगहों पर पहुँचा बचपन में। एक अच्छी किताब आपके साथ यही करती है। वह आपके अलग-अलग भावों को एक जगह लाकर जोड़ देती है। यह किताब अधिकतर यतीश जी के बचपन पर केंद्रित है। वह बचपन जितना रोमांचक लगता है , उतना ही दुख भरा भी दिखाई देता है। या

यतीश कुमार के संस्मरण संग्रह ‘बोरसी भर आँच’ पर वरिष्ठ लेखक प्रमोद कुमार झा की टिप्पणी

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  पूरी दुनिया में लाखों लोगों की जीवन गाथा लिखी गयी है हज़ारों लोगों ने अपनी आत्मकथा भी लिखी है पर बहुत कम आत्मकथा ऐसी बन पाती है कि लोग उसे बार बार पढ़ना चाहें। बहुत बार आत्मकथा भाषा साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भी बन जाती है। हिंदी में प्रतिष्ठित कवि हरिवंश राय बच्चन की चार खण्डों में लिखित आत्मकथा एक ऐसी ही साहित्यिक कृति है। जनवरी 2024 में ' राधाकृष्ण प्रकाशन ' से एक नए मिज़ाज़ की आत्मकथा आई है “ बोरसी भर आंच ” । चर्चित युवा कवि और लेखक यतीश कुमार की ये आत्मकथा अब तक हिंदी में लिखी गयी आत्मकथाओं से भिन्न है क्योंकि इसमें बड़े ‘ प्रतिष्ठित और वयोवृद्ध ’ होने का बोझ भी नहीं है। यतीश कुमार रेलवे के एक वरिष्ठ इंजीनियर हैं और अद्भुत प्रतिभा के धनी हैं। उन्होंने इस आत्मकथा में अपने बाल्यावस्था , किशोरावस्था और युवावस्था को जीवंत शब्दों के माध्यम से दिखाने की कोशिश की है जो बहुत ही रोचक और कौतूहल भरा है। इस पुस्तक के बारे में प्रसिद्ध लेखक उदय प्रकाश जी लिखते हैं , “ यतीश कुमार ने अपने बचपन और अतीत में जाने के लिये जिस ‘ युक्ति ’ का आविष्कार किया है , उसे वे ‘ अतीत के सैरब

यतीश कुमार के संस्मरण संग्रह ‘बोरसी भर आँच’ पर वरिष्ठ कथाकार उषा प्रियंवदा की टिप्पणी

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यतीश कुमार के संस्मरण संग्रह “ बोरसी भर आँच ” पर पंकज सुबीर का प्रोग्राम देखा। उन्होंने सचमुच इस पुस्तक का मर्म समझ लिया। उनका यह कथन भी सही है कि इस पुस्तक को दो बार पढ़ना चाहिए। पहली बार पढ़ी एक रफ़्तार से , डूब कर , अब दोबारा पढ़नी है , जैसे कि एक पसंदीदा गीत को दोबारा सुनना। पहले सुर बाद में पूरा संगीत। किताब “ बोरसी भर आँच ” जो लेखक को ऊर्जा तो देती ही   है और अपने वंचित बाल जीवन को दोबारा मुड़ कर देखने को प्रेरित भी करती है , केवल एक संस्मरण या जीवनी नहीं है , वयस्क हो कर उस अतीत का पुनः निरीक्षण और समाज की मान्यताओं पर सटीक टिप्पणी भी है। अक्सर लोग जीवन की प्रवंचनाओं को गले में हार डाल कर पहन लेते हैं , परंतु उस विगत में जाना , वयस्क और समर्थ होकर उन बातों और अपने को तोलना और फिर उन्हें तटस्थ भाव से प्रस्तुत करना उस जीवन का पुनः मूल्यांकन करना है , जिसे यतीश कुमार एक सहृदय कवि की दृष्टि से देखते , तोलते और सम्पादन करने के बाद ऐसे प्रस्तुत करते हैं जिसमें एक बालक की अबोध दृष्टि और कवि की समवेदना भी है। अध्याय के पहले एक वयस्क अपने बचपन को देखता और तोलता है और फिर ऐसी ईमानदा

यतीश कुमार के संस्मरण संग्रह ‘बोरसी भर आँच’ पर लेखिका रुपाली संझा की समीक्षा

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बचपन के नाज़ुक मन की एक अंगीठी में धीमे-धीमे सुलगते अंगारों को अपनी सबल स्मृतियों की फूंकनी से फूंक मारकर उनकी आँच को फिर से दहकाने और उससे ताप पाने का नाम है ‘बोरासी भर आँच’। उम्र के पड़ाव पार करते हम जितने आगे बढ़ते जाते हैं , उतने ही पीछे छूटे रास्ते व्यग्रता से हमें याद आते हैं। इसलिए नहीं कि उन रास्तों पर चलकर हम जहाँ आज हैं ; वहाँ तक आन‌ पहुँचे , बल्कि इसलिए कि उन रास्तों पर चलते हुए ही हमें अपनी ज़िंदगी के सबसे अहम सीखों के काँटे और हसीन यादों की रसबेरियाँ मिली थीं। जिनकी कड़वाहट और मिठास के मिलजुलपन से हम वो बने , जो हम आज हैं। आज के इस छोर पर , सामाजिक पैमाने की बंधी बंधाई कसौटी के हिसाब से खरा उतरा सैंतालीस साल का एक भरापूरा व्यक्तित्व कल के उस छोर की तपन से जलकर दग्ध नहीं हुआ वरन अपने हठ के बल पर उसमें तप कर कुंदन की तरह बाहर निकल कर आ गया। वो जो एक भयाक्रांत , निरीह , निराश , बेचारियों से लदा और अकेलेपन की जहाँ-तहाँ चोट खाता बचपन था , उसने अपने उसी सहज बचपने में उन क्रूरताओं को भी कड़वी गोलियों की तरह निगल लिया। शुरू में बच्चे के तन मन ने स्वाभाविक और त्वरित विपरी

यतीश कुमार के संस्मरण संग्रह ‘बोरसी भर आँच’ पर कवि, कथाकार एवं संपादक शिव कुमार यादव की समीक्षा

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जीवन का यथार्थ  " बोरसी भर आँच" यतीश कुमार की तीसरी पुस्तक है। कविता , कहानी या उपन्यास लेखन से रचनाकार की प्रतिबद्घता का पता तो चलता ही है मगर , जीवन का सरोकार कथेतर से छन कर आता है। कथेतर लेखन आसान नहीं होता है। लेकिन यतीश कुमार ने अपनी स्मृतियों से अपने जीवन के सबसे सूक्ष्म दिनों को “बोरसी भर आँच” में भर कर आसान बना दिया है। यह तभी संभव होता है , जब आदमी सामाजिक , सांस्कृतिक और राजनीतिक स्तर से प्रौढ़ होता है। इसकी प्रस्तावना: तमाम रंगों का मेला , प्रसिद्ध कथाकार और संपादक अखिलेश ने लिखी है। पुस्तक के अंतिम पृष्ठ पर हिन्दी कथा साहित्य के प्रतिष्ठित कथाकार उदय प्रकाश ने वल्लर्भ लिखा है। इससे पुस्तक की आँच में तेजी आ गई है। हालाँकि इस पुस्तक के दो शीर्षक है। एक "बोरसी भरी आँच" दूसरा "अतीत का सैरबीन"। शीर्षक के संबंध में अखिलेश जी कहते हैं कि शीर्षक "बोरसी भर आग" भी हो सकता था पर यतीश आग नहीं आँच लिखते हैं। आग दिखती है किन्तु महसूस आँच होती है। तो आदरणीय "बोरसी भर आग" सही है या "बोरसी भर आँच" ? अपनी अल्प बुद्धि से जो मैं स